' रानाडे उन महापुरुषों में से हैं जिन पर भारत को गर्व है । सार्वजनिक सम्मान और सर्वसाधारण की श्रद्धा - भक्ति का पात्र वही हो सकता है जो अपने लाभ से पहले सर्वसाधारण के लाभ का ध्यान रखता है । '
जस्टिस रानाडे ( 1840 - 1901 ) हाईकोर्ट के जज थे । आज से लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व हाईकोर्ट का जज होना बहुत बड़ी बात थी , जनता में उनका बहुत सम्मान था लेकिन इतना सब होते हुए भी उनमे किसी प्रकार के अहंकार अथवा प्रदर्शन का भाव लेशमात्र भी उत्पन्न नहीं हुआ था । वे जनता के एक सामान्य व्यक्ति की तरह रहते थे ।
एक बार मद्रास कांग्रेस से पूना लौटते समय एक अंग्रेज ने उनको सामान्य आदमी समझकर उनका सामान फर्स्ट क्लास की सीट पर से हटवा दिया था । जब उनके साथियों ने इस बात के लिए मुकदमा चलाकर उस अंग्रेज को दण्ड दिलाने पर जोर दिया तो रानाडे ने कहा ------
" ऐसी बातों पर लड़ना - झगड़ना व्यर्थ है । यह सच है कि लगभग सभी अंग्रेज हम लोगों को जंगली आदमी समझते हैं , पर क्या इस द्रष्टि से हम लोगों का आचरण अच्छा है ? हम अछूतों के साथ कैसा बर्ताव करते हैं ? कई जाति वालों को हम छूते भी नहीं । मैं पूछता हूँ क्या वे जानवरों से भी गये गुजरे हैं ? क्या हम सदा उनको पैरों के नीचे ही कुचलते रहेंगे ? यदि हम लोगों की यह दशा है तो हम किस मुँह से अंग्रेज जाति की निंदा कर सकते हैं । "
रानाडे राजनीतिक नेता के साथ समाज सुधारक भी थे उनका कहना था कि जब तक हम अपनी जातीय कुरीतियों का सुधार न करेंगे तब तक आर्थिक , धार्मिक तथा राजनैतिक सुधार सम्भव नहीं हो सकते ।
जस्टिस रानाडे ( 1840 - 1901 ) हाईकोर्ट के जज थे । आज से लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व हाईकोर्ट का जज होना बहुत बड़ी बात थी , जनता में उनका बहुत सम्मान था लेकिन इतना सब होते हुए भी उनमे किसी प्रकार के अहंकार अथवा प्रदर्शन का भाव लेशमात्र भी उत्पन्न नहीं हुआ था । वे जनता के एक सामान्य व्यक्ति की तरह रहते थे ।
एक बार मद्रास कांग्रेस से पूना लौटते समय एक अंग्रेज ने उनको सामान्य आदमी समझकर उनका सामान फर्स्ट क्लास की सीट पर से हटवा दिया था । जब उनके साथियों ने इस बात के लिए मुकदमा चलाकर उस अंग्रेज को दण्ड दिलाने पर जोर दिया तो रानाडे ने कहा ------
" ऐसी बातों पर लड़ना - झगड़ना व्यर्थ है । यह सच है कि लगभग सभी अंग्रेज हम लोगों को जंगली आदमी समझते हैं , पर क्या इस द्रष्टि से हम लोगों का आचरण अच्छा है ? हम अछूतों के साथ कैसा बर्ताव करते हैं ? कई जाति वालों को हम छूते भी नहीं । मैं पूछता हूँ क्या वे जानवरों से भी गये गुजरे हैं ? क्या हम सदा उनको पैरों के नीचे ही कुचलते रहेंगे ? यदि हम लोगों की यह दशा है तो हम किस मुँह से अंग्रेज जाति की निंदा कर सकते हैं । "
रानाडे राजनीतिक नेता के साथ समाज सुधारक भी थे उनका कहना था कि जब तक हम अपनी जातीय कुरीतियों का सुधार न करेंगे तब तक आर्थिक , धार्मिक तथा राजनैतिक सुधार सम्भव नहीं हो सकते ।
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