' गुणों को ह्रदय में धारण करके तोड़ - फोड़ भी स्वीकार करने वाले क्रान्तिकारी देश के निर्माण में कभी बाधक नहीं बने और शान्ति की दुहाई देने वाले अंत:करण के हीन व्यक्तित्वों के कारनामे हमारे सामने रोज आया करते हैं । '
अंग्रेजों को अपनी दमन नीति पर गर्व था -- वे प्रदर्शित करने लगे थे कि भारतीय जवानों में कड़े प्रतिकार की क्षमता नहीं है । ऐसी स्थिति में देश के युवकों को शौर्य एवं उग्रता का नमूना भी उनके सामने रखना आवश्यक - सा लगा | उन परिस्थितियों में जो युवक स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़े ---- दहकते हुए अंगार जैसे उनके व्यक्तित्व का तेज सहन करना कठिन था , फिर भी उनके अन्त:करण में मानवता , सह्रदयता तथा भावनाशीलता के जो पावन स्रोत बहते थे ----- उनको देख सकने वाले गद -गद हो उठते थे ।
चंद्रशेखर आजाद उन दिनों ओरछा के जंगलों में थे , अंग्रेज सरकार उनकी खोज में थी । तभी उन्हें सूचना मिली कि उनके प्रशिक्षक , जिन्होंने उन्हें मोटर चलाने और उसकी मरम्मत सम्बन्धी प्रशिक्षण दिया था , उनकी पुत्री की शादी होने वाली है । , ये प्रशिक्षक इस्लाम धर्म के अनुयायी , सह्रदय और राष्ट्रीय विचारधारा से ओत -प्रोत व्यक्ति थे । एक रात चंद्रशेखर आजाद झाँसी में उनके यहाँ पहुँच गये । उन्हें देखते ही उस्ताद चौंके और बोले --- ' क्यों आजाद खैरियत तो है ? ऐसी स्थिति में तुम्हे अकारण आने की क्या आवश्यकता थी ? "
आजाद ने नम्रता पूर्वक कहा ---- " उस्ताद जी मैं नाचीज किसी काबिल होऊं या नहीं , मेरे किये कुछ हो या न हो , किन्तु बहिन की शादी के लिए मैं सहयोग करने का कोई प्रयास भी न करूँ , इतना नीच तो में नहीं हूँ । " उस्ताद ने प्रेम के नाते अकारण खतरा न लेने के आग्रह से उन्हें मीठी झिड़की दी किन्तु आजाद के आग्रह के आगे वे चुप रह गये | उस्ताद चुपचाप अन्दर गये कुछ रूपये लाकर आजाद के हाथ में दिये और बोले --- " काम तुम्हे देता हूँ पर अब और कुछ न सुनूँगा । यह रूपये ले जाओ , अपनी ओर से कुछ खर्च न करना । यह मेरी आज्ञा है । यहाँ झाँसी की अपेक्षा ओरछा में घी काफी सस्ता है , वहां से दो टीन घी खरीद कर अपनी बहिन की शादी के लिए भेज देना , बस , इतना ही कार्य तुम्हारे लिए बहुत है l बेटा तुम्हारा काम बड़ा है , उसमे ही समय लगाओ ।" आदेश प्राप्त कर आजाद उसी रात वापस ओरछा के जंगलों में पहुँच गये ।
इसके एक सप्ताह के अन्दर ही एक रात्रि को फिर दरवाजा खटका । उस्ताद ने उठकर दरवाजा खोला तो देखा कंधे पर दो टिन घी लिए चंद्रशेखर आजाद खड़े हैं | उस्तादजी सब समझ गये कि बीहड़ जंगलों में से होकर ओरछा से झाँसी तक आजाद अपने कन्धों पर घी लाये | उनकी भावना पर उनका ह्रदय उमड़ा , प्यार व रोष से उन्होंने कहा --- ' आजाद तुम कितने लापरवाह हो ? कितना खतरा मोल लिया , और किसी तरीके से भेजना क्या संभव नहीं था तुम्हारे लिए ? "
आजाद ने नम्रता से कहा ---- ' इस पवित्र कार्य में मुझे एक ही तो मौका मिला था उस्ताद जी , उसी को किसी और से करा लेता तो मेरा शरीर किस काम आता l "
उस्ताद ने कहा --- " पर आजाद सोचो तो देश को तुम्हारी कितनी जरुरत है , समय के अनुसार उपयोगिता का ध्यान भी तो रखना चाहिए | । " आजाद उसी प्रकार सिर झुकाए खड़े रहे और बोले ---- "उपयोगी -अनुपयोगी के स्थापन में मेरी बुद्धि काम नहीं कर पाती । मुझे ढालते समय मेरे रौद्र रूप के अन्दर किसी ने एक मनुष्यता का अंकुर भी जगा दिया है । वह भी तो अपनी खुराक , अपना हक मांगता है । उसकी उपेक्षा कर देने के बाद यह चलती - फिरती विध्वंसक मशीन देश के कितने काम आ सकेगी यह मैं नहीं समझता । " उस्ताद ने आजाद को गले से लगा लिया , देर तक उनकी आँखों से आंसू बहते रहे ।
ऊपर से फौलाद की तरह कठोर , जरा से संदेह पर मनुष्य को गोली से उड़ा देने वाले चंद्रशेखर आजाद के मानवीय गुणों से पूरित , भावना शील अन्त:करण को शायद उनके निकटस्थ आत्मीय भी पूरी तरह न पहचान सके थे ।
अंग्रेजों को अपनी दमन नीति पर गर्व था -- वे प्रदर्शित करने लगे थे कि भारतीय जवानों में कड़े प्रतिकार की क्षमता नहीं है । ऐसी स्थिति में देश के युवकों को शौर्य एवं उग्रता का नमूना भी उनके सामने रखना आवश्यक - सा लगा | उन परिस्थितियों में जो युवक स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़े ---- दहकते हुए अंगार जैसे उनके व्यक्तित्व का तेज सहन करना कठिन था , फिर भी उनके अन्त:करण में मानवता , सह्रदयता तथा भावनाशीलता के जो पावन स्रोत बहते थे ----- उनको देख सकने वाले गद -गद हो उठते थे ।
चंद्रशेखर आजाद उन दिनों ओरछा के जंगलों में थे , अंग्रेज सरकार उनकी खोज में थी । तभी उन्हें सूचना मिली कि उनके प्रशिक्षक , जिन्होंने उन्हें मोटर चलाने और उसकी मरम्मत सम्बन्धी प्रशिक्षण दिया था , उनकी पुत्री की शादी होने वाली है । , ये प्रशिक्षक इस्लाम धर्म के अनुयायी , सह्रदय और राष्ट्रीय विचारधारा से ओत -प्रोत व्यक्ति थे । एक रात चंद्रशेखर आजाद झाँसी में उनके यहाँ पहुँच गये । उन्हें देखते ही उस्ताद चौंके और बोले --- ' क्यों आजाद खैरियत तो है ? ऐसी स्थिति में तुम्हे अकारण आने की क्या आवश्यकता थी ? "
आजाद ने नम्रता पूर्वक कहा ---- " उस्ताद जी मैं नाचीज किसी काबिल होऊं या नहीं , मेरे किये कुछ हो या न हो , किन्तु बहिन की शादी के लिए मैं सहयोग करने का कोई प्रयास भी न करूँ , इतना नीच तो में नहीं हूँ । " उस्ताद ने प्रेम के नाते अकारण खतरा न लेने के आग्रह से उन्हें मीठी झिड़की दी किन्तु आजाद के आग्रह के आगे वे चुप रह गये | उस्ताद चुपचाप अन्दर गये कुछ रूपये लाकर आजाद के हाथ में दिये और बोले --- " काम तुम्हे देता हूँ पर अब और कुछ न सुनूँगा । यह रूपये ले जाओ , अपनी ओर से कुछ खर्च न करना । यह मेरी आज्ञा है । यहाँ झाँसी की अपेक्षा ओरछा में घी काफी सस्ता है , वहां से दो टीन घी खरीद कर अपनी बहिन की शादी के लिए भेज देना , बस , इतना ही कार्य तुम्हारे लिए बहुत है l बेटा तुम्हारा काम बड़ा है , उसमे ही समय लगाओ ।" आदेश प्राप्त कर आजाद उसी रात वापस ओरछा के जंगलों में पहुँच गये ।
इसके एक सप्ताह के अन्दर ही एक रात्रि को फिर दरवाजा खटका । उस्ताद ने उठकर दरवाजा खोला तो देखा कंधे पर दो टिन घी लिए चंद्रशेखर आजाद खड़े हैं | उस्तादजी सब समझ गये कि बीहड़ जंगलों में से होकर ओरछा से झाँसी तक आजाद अपने कन्धों पर घी लाये | उनकी भावना पर उनका ह्रदय उमड़ा , प्यार व रोष से उन्होंने कहा --- ' आजाद तुम कितने लापरवाह हो ? कितना खतरा मोल लिया , और किसी तरीके से भेजना क्या संभव नहीं था तुम्हारे लिए ? "
आजाद ने नम्रता से कहा ---- ' इस पवित्र कार्य में मुझे एक ही तो मौका मिला था उस्ताद जी , उसी को किसी और से करा लेता तो मेरा शरीर किस काम आता l "
उस्ताद ने कहा --- " पर आजाद सोचो तो देश को तुम्हारी कितनी जरुरत है , समय के अनुसार उपयोगिता का ध्यान भी तो रखना चाहिए | । " आजाद उसी प्रकार सिर झुकाए खड़े रहे और बोले ---- "उपयोगी -अनुपयोगी के स्थापन में मेरी बुद्धि काम नहीं कर पाती । मुझे ढालते समय मेरे रौद्र रूप के अन्दर किसी ने एक मनुष्यता का अंकुर भी जगा दिया है । वह भी तो अपनी खुराक , अपना हक मांगता है । उसकी उपेक्षा कर देने के बाद यह चलती - फिरती विध्वंसक मशीन देश के कितने काम आ सकेगी यह मैं नहीं समझता । " उस्ताद ने आजाद को गले से लगा लिया , देर तक उनकी आँखों से आंसू बहते रहे ।
ऊपर से फौलाद की तरह कठोर , जरा से संदेह पर मनुष्य को गोली से उड़ा देने वाले चंद्रशेखर आजाद के मानवीय गुणों से पूरित , भावना शील अन्त:करण को शायद उनके निकटस्थ आत्मीय भी पूरी तरह न पहचान सके थे ।
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