' न्याय के पक्ष में लड़ने वाले असफलता के भय से अपने निर्णय को स्थगित नहीं करते | उनके सामने तो एक ही लक्ष्य होता है --- अन्याय का प्रतिकार । अन्याय सहना अन्याय करने से कई गुना बड़ा अपराध है । '
1829 पेंशन प्राप्त पेशवा बाजीराव ने अपनी वसीयत लिखी । जिसके अनुसार पेशवा की पेंशन व सम्पूर्ण सम्पति का उत्तराधिकार उनके दत्तक पुत्र नाना साहब को मिलने वाला था । 1852 में पेशवा की मृत्यु हो गई तो अंग्रेजों ने इस वसीयत को अमान्य कर दिया । अंग्रेजों की यह अनीति नाना साहब को अच्छी नहीं लगी । स्वार्थ के लिए नहीं अन्याय के प्रतिकार को अनिवार्य समझ कर वे अपना यह अधिकार पाने का प्रयास करने लगे ।
अंग्रेजों के पास हुकूमत थी , बड़ी सेना थी , उनके सामने नाना साहब की कुछ भी स्थिति नहीं थी । वह कानपुर के पास बिठूर में रहते थे । उनके पास केवल पांच हजार सैनिक थे , इतनी बड़ी ताकत से टकराना अपने विनाश को बुलाना था । नाना साहब को विनाश का भय नहीं था ।
अन्याय का प्रतिकार मानव मात्र का धर्म होता है , इस धर्म से विमुख होकर जीना क्या जीना है । अन्याय तब तक ही फलता - फूलता है जब तक कि उसका प्रतिकार करने के लिए कोई संगठन उठ खड़ा नहीं होता ।
अंग्रेज भारतीयों को मरा हुआ समझ बैठे थे । नाना साहब जानते थे कि अब तक कोई व्यक्ति साहस करके आगे नहीं आया था इस कारण वे चुप बैठें हैं पर यदि उन्हें जगाकर एक सूत्र में पिरोया जाये तो वे इस विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने में समर्थ होंगे ।
नाना साहब ने अंग्रेजों के अत्याचारों को बताकर भारतीय नरेशों को उनके विरुद्ध संगठित होकर क्रांति करने के लिए आह्वान किया और जनता में प्रचार करने के लिए गुप्त प्रचारक भेजे ।
देखते - देखते नाना साहब को पत्रों के उत्तर प्राप्त होने लगे l नाना साहब को अब पता लगा कि व्यक्ति अपने विचारों से ही छोटा और बड़ा होता है l कल तक वे पेंशनयाफ्ता राजा भर थे पर आज वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के द्रष्टा हैं । नाना साहब 1857 की क्रांति के सूत्र धार बने l
1829 पेंशन प्राप्त पेशवा बाजीराव ने अपनी वसीयत लिखी । जिसके अनुसार पेशवा की पेंशन व सम्पूर्ण सम्पति का उत्तराधिकार उनके दत्तक पुत्र नाना साहब को मिलने वाला था । 1852 में पेशवा की मृत्यु हो गई तो अंग्रेजों ने इस वसीयत को अमान्य कर दिया । अंग्रेजों की यह अनीति नाना साहब को अच्छी नहीं लगी । स्वार्थ के लिए नहीं अन्याय के प्रतिकार को अनिवार्य समझ कर वे अपना यह अधिकार पाने का प्रयास करने लगे ।
अंग्रेजों के पास हुकूमत थी , बड़ी सेना थी , उनके सामने नाना साहब की कुछ भी स्थिति नहीं थी । वह कानपुर के पास बिठूर में रहते थे । उनके पास केवल पांच हजार सैनिक थे , इतनी बड़ी ताकत से टकराना अपने विनाश को बुलाना था । नाना साहब को विनाश का भय नहीं था ।
अन्याय का प्रतिकार मानव मात्र का धर्म होता है , इस धर्म से विमुख होकर जीना क्या जीना है । अन्याय तब तक ही फलता - फूलता है जब तक कि उसका प्रतिकार करने के लिए कोई संगठन उठ खड़ा नहीं होता ।
अंग्रेज भारतीयों को मरा हुआ समझ बैठे थे । नाना साहब जानते थे कि अब तक कोई व्यक्ति साहस करके आगे नहीं आया था इस कारण वे चुप बैठें हैं पर यदि उन्हें जगाकर एक सूत्र में पिरोया जाये तो वे इस विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने में समर्थ होंगे ।
नाना साहब ने अंग्रेजों के अत्याचारों को बताकर भारतीय नरेशों को उनके विरुद्ध संगठित होकर क्रांति करने के लिए आह्वान किया और जनता में प्रचार करने के लिए गुप्त प्रचारक भेजे ।
देखते - देखते नाना साहब को पत्रों के उत्तर प्राप्त होने लगे l नाना साहब को अब पता लगा कि व्यक्ति अपने विचारों से ही छोटा और बड़ा होता है l कल तक वे पेंशनयाफ्ता राजा भर थे पर आज वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के द्रष्टा हैं । नाना साहब 1857 की क्रांति के सूत्र धार बने l
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