' आज से 125 वर्ष पहले हाई कोर्ट का जज होना बहुत बड़ी बात थी लेकिन इतने ऊँचे पद पर होते हुए भी उनमे अहंकार अथवा प्रदर्शन का भाव लेशमात्र भी उत्पन्न नहीं हुआ था । बंगला भाषा सीखने के लिए उन्होंने नाई को गुरु बनाया । '
1887 में रानाडे ' फाइनेंस कमेटी ' के कार्य से कलकत्ता में ठहरे थे । एक दिन बंगाली भाषा का अखबार बेचने वाला उनके बंगले में आया और कहने लगा -- ' आप इस समाचार पत्र के ग्राहक बन जाइये । ' रानाडे की पत्नी श्रीमती रमाबाई ने उससे कह दिया -- भाई , हमें तो यहाँ की भाषा आती नहीं , हम इस अखबार को लेकर क्या करेंगे ?' पर अखबार वाले ने यही बात रानाडे से कही तो रानाडे ने कहा --- " अच्छा आज का अखबार रख जाओ फिर एक सप्ताह बाद आना और तब हमारा नाम ग्राहकों की सूची में लिख लेना । " जब अखबार वाला चला गया तो उन्होंने अपनी पत्नी से कहा --- " हमें यहाँ कई महीने रहना है , इसलिए यहाँ की भाषा से परिचित न होना हमारे लिए लज्जा की बात होगी । तुमको यहाँ की भाषा सीख लेनी चाहिए । "
रानाडे उनसे कहते रहे कि तुमको बंगला भाषा सीख लेनी चाहिए । रमाबाई ने कुछ सोचकर उत्तर दिया --- " अच्छा मैं बंगाली सीख लूँगी, किन्तु आपसे ही सीखूंगी , किसी अन्य अध्यापक से नहीं । "
वह जानती थीं कि रानाडे तो बंगला भाषा जानते नहीं हैं , इस कारण यह बात यों ही रह जायेगी ।
रानाडे दूसरे ही दिन बाजार जाकर कितनी ही पुस्तकें खरीद लाये और अंग्रेजी की मदद से बंगला सीखने लगे । दो दिन तक खूब परिश्रम से उन्होंने कुछ जानकारी प्राप्त कर ली और तीसरे दिन से अपनी पत्नी को स्वयं बंगाली पढ़ाना आरम्भ कर दिया ।
एक दिन जब रमाबाई बंगला भाषा पढ़कर भीतर जाकर घर -गृहस्थी के काम करने लगीं , तब रानाडे नाई से हजामत बनवाने लगे । बंगला भाषा की पुस्तक तब भी उनके हाथ में थी । जब नाई हजामत बना रहा था तो रानाडे पुस्तक पढ़ते जाते और नाई से शब्दों का उच्चारण पूछते जाते । रमाबाई को जब दो व्यक्तियों के बोलने की आवाज आई , तो उन्हें आश्चर्य हुआ क्योंकि घर में कोई और व्यक्ति न था , उन्होंने दरवाजे से झाँक कर देखा तो रानाडे को नाई से पूछ-पूछकर पुस्तक पढ़ते देखा । यह द्रश्य देख उन्हें बहुत हँसी आई । नाइ के चले जाने पर उन्होंने कहा --- " आप तो दत्तात्रेय की तरह चुन -चुन कर गुरु बना रहे हैं ।
इस घटना के बाद रमाबाई ने बहुत मन लगाकर बंगला पढ़ना आरम्भ किया और डेढ़ महीने में बंगला अच्छी तरह पढने और समझने लग गईं । उन्होंने उस भाषा के अनेक सुन्दर उपन्यास और अन्य साहित्यिक पुस्तकें पढ़ डालीं ।
1887 में रानाडे ' फाइनेंस कमेटी ' के कार्य से कलकत्ता में ठहरे थे । एक दिन बंगाली भाषा का अखबार बेचने वाला उनके बंगले में आया और कहने लगा -- ' आप इस समाचार पत्र के ग्राहक बन जाइये । ' रानाडे की पत्नी श्रीमती रमाबाई ने उससे कह दिया -- भाई , हमें तो यहाँ की भाषा आती नहीं , हम इस अखबार को लेकर क्या करेंगे ?' पर अखबार वाले ने यही बात रानाडे से कही तो रानाडे ने कहा --- " अच्छा आज का अखबार रख जाओ फिर एक सप्ताह बाद आना और तब हमारा नाम ग्राहकों की सूची में लिख लेना । " जब अखबार वाला चला गया तो उन्होंने अपनी पत्नी से कहा --- " हमें यहाँ कई महीने रहना है , इसलिए यहाँ की भाषा से परिचित न होना हमारे लिए लज्जा की बात होगी । तुमको यहाँ की भाषा सीख लेनी चाहिए । "
रानाडे उनसे कहते रहे कि तुमको बंगला भाषा सीख लेनी चाहिए । रमाबाई ने कुछ सोचकर उत्तर दिया --- " अच्छा मैं बंगाली सीख लूँगी, किन्तु आपसे ही सीखूंगी , किसी अन्य अध्यापक से नहीं । "
वह जानती थीं कि रानाडे तो बंगला भाषा जानते नहीं हैं , इस कारण यह बात यों ही रह जायेगी ।
रानाडे दूसरे ही दिन बाजार जाकर कितनी ही पुस्तकें खरीद लाये और अंग्रेजी की मदद से बंगला सीखने लगे । दो दिन तक खूब परिश्रम से उन्होंने कुछ जानकारी प्राप्त कर ली और तीसरे दिन से अपनी पत्नी को स्वयं बंगाली पढ़ाना आरम्भ कर दिया ।
एक दिन जब रमाबाई बंगला भाषा पढ़कर भीतर जाकर घर -गृहस्थी के काम करने लगीं , तब रानाडे नाई से हजामत बनवाने लगे । बंगला भाषा की पुस्तक तब भी उनके हाथ में थी । जब नाई हजामत बना रहा था तो रानाडे पुस्तक पढ़ते जाते और नाई से शब्दों का उच्चारण पूछते जाते । रमाबाई को जब दो व्यक्तियों के बोलने की आवाज आई , तो उन्हें आश्चर्य हुआ क्योंकि घर में कोई और व्यक्ति न था , उन्होंने दरवाजे से झाँक कर देखा तो रानाडे को नाई से पूछ-पूछकर पुस्तक पढ़ते देखा । यह द्रश्य देख उन्हें बहुत हँसी आई । नाइ के चले जाने पर उन्होंने कहा --- " आप तो दत्तात्रेय की तरह चुन -चुन कर गुरु बना रहे हैं ।
इस घटना के बाद रमाबाई ने बहुत मन लगाकर बंगला पढ़ना आरम्भ किया और डेढ़ महीने में बंगला अच्छी तरह पढने और समझने लग गईं । उन्होंने उस भाषा के अनेक सुन्दर उपन्यास और अन्य साहित्यिक पुस्तकें पढ़ डालीं ।
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