' स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने वेदान्त की शिक्षाओं के प्रचार के लिए स्वामी विवेकानन्द को चुना तो नाद ब्रह्म की उपासना पद्धति के लिए उस्ताद अलाउद्दीन खां को । '
वे मुसलमान जरुर थे पर धर्म , सम्प्रदाय के प्रति किसी प्रकार का दुराग्रह नहीं रखते थे । उनके पास कोई भी कुछ सीखने जाता तो वे सबसे पहले यही पूछते --- ' शारदा माँ का दर्शन किया । पहले उनके दर्शन करके आओ , यहाँ जो कुछ भी है सब उनका प्रसाद है । मुसलमान होने के कारण उन्होंने दो बार हज की यात्रा की और शिष्य परम्परा से हिन्दू के नाते चारों धाम की तीर्थ यात्रा की । सैकड़ों मंदिर , अनेक मस्जिद उनकी सह्रदयता से लाभान्वित हुए ।
बात 1914 की है । ' लाल बुखार ' की महामारी से लोग कीट -पतंगे की तरह मर रहे थे । बाबा का भावुक ह्रदय महामारी से अनाथ हुए बच्चों की ओर गया । उन्होंने सब बच्चों को एकत्र किया और अपने एक शिष्य से कहकर उनके रहने और भोजन की व्यवस्था करा दी । उनकी पत्नी रुई की बत्ती से बच्चों को बूंद - बूंद कर दूध पिलाती । दोनों ने मिलकर बच्चों को पाल - पोस कर बड़ा कर लिया । अब उत्तरदायी पिता की तरह बाबा ने उन्हें आत्म निर्भर बनाने की योजना बनायीं । और सब बच्चों को संगीत साधना में लगा दिया । और उस योजना के अनुसार तैयार हो गया
' मैहर बैंड ' जिसने देश के कोने - कोने में ख्याति प्राप्त की ।
सभी बच्चे वेशभूषा, रहन - सहन में सब तरह से ग्रामीण थे । लखनऊ के मैरिस कॉलेज में जब म्यूजिक कान्फ्रेंस के लिए भातखंडे जी ने बाबा को आमंत्रित किया तो बाबा ने अपनी इस शिष्य मंडली को भेजने का विचार किया । भातखंडे जी बैण्ड वादन के कार्यक्रम के लिए तैयार नहीं थे किन्तु बाबा की जिद थी , अत: भातखंडे जी इस वानर सेना को दस मिनट का समय देने के लिए बड़ी मुश्किल से सहमत हुए । लेकिन जब इस देहाती मंडली -- मैहर बैण्ड वादकों ने अपना म्कर्य्क्रम आरम्भ किया तो ऐसा समां बंधा कि लोग लगातार तीन घंटे तक मुग्ध होकर बैण्ड - वादन सुनते रहे
बाबा कहते थे -- संगीत तो एक ऐसी साधना है जो स्वयं के साथ - साथ अन्य अनेक को भी भाव - विभोर और ईश्वर सान्निध्य का आनंद प्राप्त करा देती है |
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