' परमात्मा न तो अपने हाथ से किसी को कुछ देता है और न छीनता है । वह इन दोनों के लिए मनुष्यों की आन्तरिक प्रेरणा द्वारा परिस्थितियां उत्पन्न करा देता है और आप तटस्थ भाव से मनुष्यों का उत्थान - पतन देखा करता है । '
अहिल्याबाई एक सीधी , सरल और भोली ग्रामीण कन्या थीं । उनके पिता मनकोजी एक सामान्य गरीब आदमी थे , जिनके पास थोड़ी सी भूमि , दो बैल और एक हल था । मन में सन्तोष था अत: इस गरीबी में भी उनकी जीवनधारा प्रसन्नतापूर्वक बही चली जा रही थी । अहिल्याबाई नित्यप्रति शिवजी के मंदिर में पूजा करने जाती थी । आँधी, तूफान , वर्षा , हिमपात कोई भी बाधा उन्हें अपने नियम से विचलित नहीं कर पाती थी ।
इन्दौर के महाराज मल्हार राव होल्कर, पूना आते समय मार्ग में पाथरी गाँव के उसी शिवालय के पास ठहरे जिसमे अहिल्या नित्य पूजन करने आती थीं ।
प्रभात हुआ , नित्यप्रति की भांति अहिल्या पूजा करने आई । मन्दिर के चारों ओर बड़ी चहल - पहल थी l हाथी, घोड़े , रथ और आदमियों की भीड़ ही भीड़ थी । किन्तु अहिल्या बिना किसी ओर देखे , अपने लक्ष्य मूर्ति - मन्दिर की ओर उपराम भाव से चलती गईं । लोग मौन होते और मार्ग छोड़ते गये । कन्या ने नित्य की भांति एकाग्र मन से पूजन किया और उसी अलिप्त भाव से वापस चली गईं । उस पर न तो उस भीड़भाड़ का कोई प्रभाव पड़ा और न ही भय अथवा संकोच का भाव आया । अहिल्या निर्विकार भाव से अपनी गति में इतनी एकाग्र आईं जैसे वहां कोई था ही नहीं और निर्विध्न भाव से वापस चलीं गईं । उनको सबने आते - जाते देखा पर उनने जैसे किसी को नहीं देखा
। महाराज मल्हार राव ने भी देखा , वे सोचने लगे क्या संसार में ऐसा भी सम्भव है कि महाराजा का वैभवपूर्ण शिविर लगा हो , चारों ओर घोड़े हिनहिना रहे हों , हाथी झूम रहे हों और एक साधारण सी ग्रामीण लड़की आये और बिना किसी प्रभाव के तटस्थ भाव से वापस चली जाये , मानो वहां राजा तो क्या एक छोटा सा प्राणी भी न हो । महाराजा होल्कर के मन में अहिल्या की यह तटस्थता व निर्भयता श्रद्धा बनकर बैठ गई , वे बेचैन हो उठे ।
यह राज-वैभव पर सात्विकता की विजय थी । जिस राज - वैभव को उन्होंने और उनके पूर्वजों ने बड़े प्रयत्न से संचय किया था और जिसके आधार पर वे एक महत्वपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित थे उसका अवमूल्यन हो गया था । आज की घटना से आत्म - गौरव की महानता में उनका विश्वास और बढ़ गया । उन्हें यह सत्य अनुभव हो गया कि वास्तविक वैभव मनुष्य के अन्तस् में निवास करता है । महाराजा ने अपनी अशान्ति का चिरस्थायी हल निकाल लिया कि उसकी महानता को स्वीकार किया जाये , इससे अहंकार की पीड़ा के स्थान पर गौरव - गरिमा का अनुभव होने लगता है ।
महाराज मल्हार राव ने पता लगवाया और अहिल्या के पिता को बुलवाकर कहा -- " मनकोजी ! में आपकी सुलक्षणा बेटी को अपनी पुत्र - वधु बनाना चाहता हूँ , आशा है आप मुझे निराश नहीं करेंगे । मनकोजी भागे - भागे घर आये , अहिल्या उस समय गाय का गोबर उठाकर हाथ धोने जा रही थी । पिता ने कहा -- " बेटा ! अब तेरे यह हाथ कभी गोबर से नहीं सनेंगे, अब यह इन्दौर की राजसत्ता में सहायक होंगे । " माता - पिता बेटी की विदाई के विषय में बात करने ही वाले थे कि बाहर से आवाज आई --- "मनकोजी ! कन्या को अभी जैसी बैठी हो भेज दीजिये , महाराज ने पड़ाव उठा दिया है । " मनकोजी ने बाहर आकर देखा --- चाँदी के डंडों और जरीदार मखमली पालकी द्वार पर रखी है अहिल्या उसी सफेद मोटे गाढ़े की धोती में , जो वह पहने हुए थीं पालकी में आदर से बिठा दी गईं । उज्ज्वल मन और उन्नत आत्माओं की चमक मनुष्य के व्यक्तित्व में अवश्य परिलक्षित होती है , जिसको बुद्धिमान व्यक्ति एक झलक में ही परख लेते हैं । सात्विकता को अपनाकर जमीन का एक जर्रा भी आकाश का चाँद बन जाता है तब अहिल्या तो एक कन्या , पवित्र मानवी थीं ।
अहिल्याबाई एक सीधी , सरल और भोली ग्रामीण कन्या थीं । उनके पिता मनकोजी एक सामान्य गरीब आदमी थे , जिनके पास थोड़ी सी भूमि , दो बैल और एक हल था । मन में सन्तोष था अत: इस गरीबी में भी उनकी जीवनधारा प्रसन्नतापूर्वक बही चली जा रही थी । अहिल्याबाई नित्यप्रति शिवजी के मंदिर में पूजा करने जाती थी । आँधी, तूफान , वर्षा , हिमपात कोई भी बाधा उन्हें अपने नियम से विचलित नहीं कर पाती थी ।
इन्दौर के महाराज मल्हार राव होल्कर, पूना आते समय मार्ग में पाथरी गाँव के उसी शिवालय के पास ठहरे जिसमे अहिल्या नित्य पूजन करने आती थीं ।
प्रभात हुआ , नित्यप्रति की भांति अहिल्या पूजा करने आई । मन्दिर के चारों ओर बड़ी चहल - पहल थी l हाथी, घोड़े , रथ और आदमियों की भीड़ ही भीड़ थी । किन्तु अहिल्या बिना किसी ओर देखे , अपने लक्ष्य मूर्ति - मन्दिर की ओर उपराम भाव से चलती गईं । लोग मौन होते और मार्ग छोड़ते गये । कन्या ने नित्य की भांति एकाग्र मन से पूजन किया और उसी अलिप्त भाव से वापस चली गईं । उस पर न तो उस भीड़भाड़ का कोई प्रभाव पड़ा और न ही भय अथवा संकोच का भाव आया । अहिल्या निर्विकार भाव से अपनी गति में इतनी एकाग्र आईं जैसे वहां कोई था ही नहीं और निर्विध्न भाव से वापस चलीं गईं । उनको सबने आते - जाते देखा पर उनने जैसे किसी को नहीं देखा
। महाराज मल्हार राव ने भी देखा , वे सोचने लगे क्या संसार में ऐसा भी सम्भव है कि महाराजा का वैभवपूर्ण शिविर लगा हो , चारों ओर घोड़े हिनहिना रहे हों , हाथी झूम रहे हों और एक साधारण सी ग्रामीण लड़की आये और बिना किसी प्रभाव के तटस्थ भाव से वापस चली जाये , मानो वहां राजा तो क्या एक छोटा सा प्राणी भी न हो । महाराजा होल्कर के मन में अहिल्या की यह तटस्थता व निर्भयता श्रद्धा बनकर बैठ गई , वे बेचैन हो उठे ।
यह राज-वैभव पर सात्विकता की विजय थी । जिस राज - वैभव को उन्होंने और उनके पूर्वजों ने बड़े प्रयत्न से संचय किया था और जिसके आधार पर वे एक महत्वपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित थे उसका अवमूल्यन हो गया था । आज की घटना से आत्म - गौरव की महानता में उनका विश्वास और बढ़ गया । उन्हें यह सत्य अनुभव हो गया कि वास्तविक वैभव मनुष्य के अन्तस् में निवास करता है । महाराजा ने अपनी अशान्ति का चिरस्थायी हल निकाल लिया कि उसकी महानता को स्वीकार किया जाये , इससे अहंकार की पीड़ा के स्थान पर गौरव - गरिमा का अनुभव होने लगता है ।
महाराज मल्हार राव ने पता लगवाया और अहिल्या के पिता को बुलवाकर कहा -- " मनकोजी ! में आपकी सुलक्षणा बेटी को अपनी पुत्र - वधु बनाना चाहता हूँ , आशा है आप मुझे निराश नहीं करेंगे । मनकोजी भागे - भागे घर आये , अहिल्या उस समय गाय का गोबर उठाकर हाथ धोने जा रही थी । पिता ने कहा -- " बेटा ! अब तेरे यह हाथ कभी गोबर से नहीं सनेंगे, अब यह इन्दौर की राजसत्ता में सहायक होंगे । " माता - पिता बेटी की विदाई के विषय में बात करने ही वाले थे कि बाहर से आवाज आई --- "मनकोजी ! कन्या को अभी जैसी बैठी हो भेज दीजिये , महाराज ने पड़ाव उठा दिया है । " मनकोजी ने बाहर आकर देखा --- चाँदी के डंडों और जरीदार मखमली पालकी द्वार पर रखी है अहिल्या उसी सफेद मोटे गाढ़े की धोती में , जो वह पहने हुए थीं पालकी में आदर से बिठा दी गईं । उज्ज्वल मन और उन्नत आत्माओं की चमक मनुष्य के व्यक्तित्व में अवश्य परिलक्षित होती है , जिसको बुद्धिमान व्यक्ति एक झलक में ही परख लेते हैं । सात्विकता को अपनाकर जमीन का एक जर्रा भी आकाश का चाँद बन जाता है तब अहिल्या तो एक कन्या , पवित्र मानवी थीं ।
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