वे भावुक कवि ही नहीं एक सच्चे कर्मयोगी भी थे | उन्होंने प्राचीन गुरुकुल प्रणाली पर आधारित --
' शान्ति निकेतन ' की स्थापना की और अपनी सारी सम्पति तथा नोबेल पुरस्कार से प्राप्त सवा लाख रुपया भी इस संस्था के खर्च के लिए दे दिया ।
उन दिनों उन्हें जुट के व्यवसाय में कई लाख रूपये का घाटा हो गया । कोई सामान्य व्यक्ति होता तो रोता कलपता , भाग - दौड़ मचाकर घाटा पूरा करने का प्रयत्न करता , बीमार हो जाता ।
पर वे असामान्य व्यक्ति थे । उनको न लाभ का मोह था और न घाटे में अप्रसन्नता । ऐसी विषम घड़ी में वे ऐसे प्रतिष्ठान ' शान्ति निकेतन ' की स्थापना की बात सोच रहे थे जो अपनी भारतीय कला और संस्कृति को सुरक्षित रख सके । कई लाख रूपये की प्रस्तावित योजना थी
तभी किसी ने पूछा कि प्रारूप तो तैयार कर लिया पर पैसा कहाँ से आएगा । तब उन्हें याद आया कि व्यवसाय में तो घाटा पड़ चुका है ।
उन्होंने अपनी सारी सम्पति , बंगला आदि इस संस्थान का खर्च चलाने के लिए बेच डाला फिर भी खर्च पूरा न पड़ा । सत्प्रयत्न कभी अधूरे नहीं रहते , जब उनकी पत्नी को इस बात का पता चला तो एक पोटली में अपने सम्पूर्ण आभूषण पतिदेव के चरणों में रख दिए और कहा --- यह सम्पति आप के काम आये , इससे बड़ा सौभाग्य और मेरे लिए क्या हो सकता है ।
टैगोर बाबू ने वह आभूषण बेच दिए और इस तरह असम्भव सा दिखने वाला ' शान्ति निकेतन ' की स्थापना का कार्य संपन्न हो गया । फिर किसी समय जब खर्च की कमी पड़ी तो वे एक ' अभिनय मंडली बनाकर भ्रमण के लिए निकले और अनेक बड़े नगरों में प्रदर्शन कर संस्था के लिए धन एकत्रित किया ।
' शान्ति निकेतन ' की स्थापना की और अपनी सारी सम्पति तथा नोबेल पुरस्कार से प्राप्त सवा लाख रुपया भी इस संस्था के खर्च के लिए दे दिया ।
उन दिनों उन्हें जुट के व्यवसाय में कई लाख रूपये का घाटा हो गया । कोई सामान्य व्यक्ति होता तो रोता कलपता , भाग - दौड़ मचाकर घाटा पूरा करने का प्रयत्न करता , बीमार हो जाता ।
पर वे असामान्य व्यक्ति थे । उनको न लाभ का मोह था और न घाटे में अप्रसन्नता । ऐसी विषम घड़ी में वे ऐसे प्रतिष्ठान ' शान्ति निकेतन ' की स्थापना की बात सोच रहे थे जो अपनी भारतीय कला और संस्कृति को सुरक्षित रख सके । कई लाख रूपये की प्रस्तावित योजना थी
तभी किसी ने पूछा कि प्रारूप तो तैयार कर लिया पर पैसा कहाँ से आएगा । तब उन्हें याद आया कि व्यवसाय में तो घाटा पड़ चुका है ।
उन्होंने अपनी सारी सम्पति , बंगला आदि इस संस्थान का खर्च चलाने के लिए बेच डाला फिर भी खर्च पूरा न पड़ा । सत्प्रयत्न कभी अधूरे नहीं रहते , जब उनकी पत्नी को इस बात का पता चला तो एक पोटली में अपने सम्पूर्ण आभूषण पतिदेव के चरणों में रख दिए और कहा --- यह सम्पति आप के काम आये , इससे बड़ा सौभाग्य और मेरे लिए क्या हो सकता है ।
टैगोर बाबू ने वह आभूषण बेच दिए और इस तरह असम्भव सा दिखने वाला ' शान्ति निकेतन ' की स्थापना का कार्य संपन्न हो गया । फिर किसी समय जब खर्च की कमी पड़ी तो वे एक ' अभिनय मंडली बनाकर भ्रमण के लिए निकले और अनेक बड़े नगरों में प्रदर्शन कर संस्था के लिए धन एकत्रित किया ।
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