' बल संवर्धन की प्रक्रिया मनुष्य को सहज ही आत्मविश्वासी बना देती है और वह सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है । भय मुक्ति की सिद्धि ही साधक में साहस का संचार भी कर देती है । '
ज्योतिन्द्र नाथ मुखर्जी ( जतीन ) जन्मजात साहसी नहीं थे । जन्म के पांच साल बाद माता - पिता का स्वर्गवास हो गया । उनके मामा व नानी ने उन्हें पाला । उस समय आस -पास के बच्चे कसरत करने जाया करते थे , जतिन भी उन बच्चों के साथ जाने लगे । धीरे - धीरे व्यायाम और शारीरिक गठन के प्रति यह जागरूकता इतनी विकसित हो गई कि जतिन ने किशोरावस्था में ही शिक्षा - दीक्षा के साथ घुड़सवारी , तैराकी और लाठी तथा तलवार चलाना अच्छी प्रकार सीख लिया ।
बल संवर्धन ने जतीन को शक्तिशाली , बलवान काया का स्वामी और साहसी बना दिया । उस समय देश पर अंग्रेजों का राज्य था , सत्ता के मद में अंग्रेज निरपराध भारतीय जनता पर अत्याचार करते थे । जतीन स्वाभिमानी थे और अंग्रेजों के अत्याचार और अन्याय के खिलाफ खतरा उठाने का साहस रखते थे। अपने सामने ऐसा अत्याचार होते देख अंग्रेजों को चाहे वह सिपाही हो या अफसर , ऐसी सीख देते थे कि उन्हें जीवन भर याद रहती ।
अब उनकी साहसिकता देशभक्ति में परिणित होने लगी । किशोरावस्था में ही वे भगिनी निवेदिता के संपर्क में आये । उन्होंने इस स्वाभिमानी , साहसी और पराक्रमी वीर को स्वामी विवेकानन्द के सामने प्रस्तुत किया । स्वामीजी ने उनकी प्रशंसा की और प्रोत्साहित किया कि उन जैसे निडर लोग ही देश को आततायी अंग्रेज शासन के पंजे से मुक्त करवाएंगे ।
प्रोत्साहन पाकर वे राष्ट्रीय आन्दोलन की गतिविधियों में भाग लेने लगे । बाद में वे योगी अरविन्द घोष के संपर्क में आये । जब महर्षि अरविन्द पाण्डिचेरी जाने लगे तो उन्होंने अपने साथियों से कहा --- अब तुम्हे एक योग्य , साहसी , वीर और देशभक्त नेता का अनुशासन मिलेगा और वह नेता है --- जतीन -ज्योतिन्द्र नाथ मुखर्जी । योगी अरविन्द उन्हें ' कर्मयोगी ' कहकर प्रोत्साहित करते थे ।
शरीर बल और सामर्थ्य की सार्थकता तभी है जब दुर्बल और पीड़ित व्यक्ति की आततायी और अनाचारी से रक्षा की जाये । जतिन इस तथ्य को बहुत अच्छी तरह समझते थे । महाभारत के अर्जुन की तरह उन्होंने अनीति और अन्याय के खिलाफ न्याय की लड़ाई पर मोर्चा लिया । इसलिए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में उन्हें चिरकाल तक याद किया जाता रहेगा ।
ज्योतिन्द्र नाथ मुखर्जी ( जतीन ) जन्मजात साहसी नहीं थे । जन्म के पांच साल बाद माता - पिता का स्वर्गवास हो गया । उनके मामा व नानी ने उन्हें पाला । उस समय आस -पास के बच्चे कसरत करने जाया करते थे , जतिन भी उन बच्चों के साथ जाने लगे । धीरे - धीरे व्यायाम और शारीरिक गठन के प्रति यह जागरूकता इतनी विकसित हो गई कि जतिन ने किशोरावस्था में ही शिक्षा - दीक्षा के साथ घुड़सवारी , तैराकी और लाठी तथा तलवार चलाना अच्छी प्रकार सीख लिया ।
बल संवर्धन ने जतीन को शक्तिशाली , बलवान काया का स्वामी और साहसी बना दिया । उस समय देश पर अंग्रेजों का राज्य था , सत्ता के मद में अंग्रेज निरपराध भारतीय जनता पर अत्याचार करते थे । जतीन स्वाभिमानी थे और अंग्रेजों के अत्याचार और अन्याय के खिलाफ खतरा उठाने का साहस रखते थे। अपने सामने ऐसा अत्याचार होते देख अंग्रेजों को चाहे वह सिपाही हो या अफसर , ऐसी सीख देते थे कि उन्हें जीवन भर याद रहती ।
अब उनकी साहसिकता देशभक्ति में परिणित होने लगी । किशोरावस्था में ही वे भगिनी निवेदिता के संपर्क में आये । उन्होंने इस स्वाभिमानी , साहसी और पराक्रमी वीर को स्वामी विवेकानन्द के सामने प्रस्तुत किया । स्वामीजी ने उनकी प्रशंसा की और प्रोत्साहित किया कि उन जैसे निडर लोग ही देश को आततायी अंग्रेज शासन के पंजे से मुक्त करवाएंगे ।
प्रोत्साहन पाकर वे राष्ट्रीय आन्दोलन की गतिविधियों में भाग लेने लगे । बाद में वे योगी अरविन्द घोष के संपर्क में आये । जब महर्षि अरविन्द पाण्डिचेरी जाने लगे तो उन्होंने अपने साथियों से कहा --- अब तुम्हे एक योग्य , साहसी , वीर और देशभक्त नेता का अनुशासन मिलेगा और वह नेता है --- जतीन -ज्योतिन्द्र नाथ मुखर्जी । योगी अरविन्द उन्हें ' कर्मयोगी ' कहकर प्रोत्साहित करते थे ।
शरीर बल और सामर्थ्य की सार्थकता तभी है जब दुर्बल और पीड़ित व्यक्ति की आततायी और अनाचारी से रक्षा की जाये । जतिन इस तथ्य को बहुत अच्छी तरह समझते थे । महाभारत के अर्जुन की तरह उन्होंने अनीति और अन्याय के खिलाफ न्याय की लड़ाई पर मोर्चा लिया । इसलिए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में उन्हें चिरकाल तक याद किया जाता रहेगा ।
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