' भारतीय इतिहास में महाराज पुरु का बहुत सम्मान पूर्ण स्थान है । महाराज पुरु के सम्मान का कारण उनकी कोई दिग्विजय नहीं है । इतिहास में केवल यही एक ऐसा वीर पुरुष है , जिसने पराजित होने पर भी विजयी को पीछे हटने पर विवश कर दिया । '
सिकन्दर ने विश्व विजय की ठान ली थी , अत: उसने भारत की आंतरिक दशा का पता लगाने के लिए भेदिये भेजे , जिन्होंने आकर समाचार दिया कि ' वीरता भारतीयों की बपौती है किन्तु ' फूट ' रूपी नागिन के विष से भारतियों की बुद्धि मूर्छित हो चुकी है । ' यदि सिकन्दर भारत में प्रवेश चाहता है तो उसे तलवार की अपेक्षा भारतीयों में फैली फूट से लाभ उठाना होगा ।
सिकन्दर ने शीघ्र पता लगा लिया कि कौन देश की स्वतंत्रता पर फन मार सकता है । सिकन्दर ने तक्षशिला के राजा आम्भीक को लगभग पचास लाख रूपये की भेंट के साथ सन्देश भेजा कि महाराज आम्भीक सिकंदार की मित्रता स्वीकार करें तो वह उन्हें महाराज पुरु को जीतने में मदद करेगा और सारे भारत में उसकी दुन्दुभी बजवा देगा ।
आम्भीक देश के साथ विश्वासघात कर के सिकन्दर के स्वागत को तैयार हो गया ।
भारत के गौरवपूर्ण चन्द्र - बिम्ब में एक कलंक बिन्दु लग गया ।
सिकन्दर विजयी होता जा रहा था और दुष्ट आम्भीक की कुटिल नीति से अन्य राजा भी देशद्रोही बनते जा रहे थे । अब भारत के प्रवेश द्वार पर एकमात्र प्रहरी के रूप में महाराज पुरु रह गये । सिकन्दर की विशाल सेना के साथ युद्ध में वह क्षण निकट था जब महाराज पुरु की विजय हो किन्तु एक भारी विस्फोट होने से पुरु की सेना के हाथी भड़क गये और अपने ही सैनिकों को कुचलते हुए पीछे की ओर भाग खड़े हुए । महाराज पुरु भी घायल होकर गिर पड़े । अचेतावस्था में गिरफ्तारी के बाद जब महाराज पुरु को होश आया तो वे सिकन्दर के सामने थे ।
सिकन्दर ने हँसते हुए गर्व से कहा ---- ' पोरस ! बताओ कि अब तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाये । " सिकंदर सोचता था कि अब वे उसके सामने नत - मस्तक हो जायेंगे किन्तु महाराज पुरु ने स्वाभिमान पूर्वक सिर ऊँचा करके कहा ---- " सिकंदर ! वह व्यवहार , जो एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है । "
पुरु का वीरोचित उत्तर सुनकर सिकंदर प्रसन्न हुआ और उसके गले लग गया । भारतीयों की वीरता से सिकन्दर की सेना की हिम्मत पस्त हो गई थी , सिकंदर जानता था कि अब यदि वह आगे बढ़ने का आदेश देगा तो भयभीत सेना विद्रोह कर देगी । अत: सिकंदर चुपचाप भारतीय सीमाओं से बाहर चला गया ।
अभागे आम्भीक जैसे अनेक देशद्रोहियों के लाख कुत्सित प्रयत्नों के बावजूद भी एक अकेले देशभक्त पुरु ने भारतीय गौरव की लाज रखकर संसार को सिकंदर से पद - दलित होने से बचा लिया
सिकन्दर ने विश्व विजय की ठान ली थी , अत: उसने भारत की आंतरिक दशा का पता लगाने के लिए भेदिये भेजे , जिन्होंने आकर समाचार दिया कि ' वीरता भारतीयों की बपौती है किन्तु ' फूट ' रूपी नागिन के विष से भारतियों की बुद्धि मूर्छित हो चुकी है । ' यदि सिकन्दर भारत में प्रवेश चाहता है तो उसे तलवार की अपेक्षा भारतीयों में फैली फूट से लाभ उठाना होगा ।
सिकन्दर ने शीघ्र पता लगा लिया कि कौन देश की स्वतंत्रता पर फन मार सकता है । सिकन्दर ने तक्षशिला के राजा आम्भीक को लगभग पचास लाख रूपये की भेंट के साथ सन्देश भेजा कि महाराज आम्भीक सिकंदार की मित्रता स्वीकार करें तो वह उन्हें महाराज पुरु को जीतने में मदद करेगा और सारे भारत में उसकी दुन्दुभी बजवा देगा ।
आम्भीक देश के साथ विश्वासघात कर के सिकन्दर के स्वागत को तैयार हो गया ।
भारत के गौरवपूर्ण चन्द्र - बिम्ब में एक कलंक बिन्दु लग गया ।
सिकन्दर विजयी होता जा रहा था और दुष्ट आम्भीक की कुटिल नीति से अन्य राजा भी देशद्रोही बनते जा रहे थे । अब भारत के प्रवेश द्वार पर एकमात्र प्रहरी के रूप में महाराज पुरु रह गये । सिकन्दर की विशाल सेना के साथ युद्ध में वह क्षण निकट था जब महाराज पुरु की विजय हो किन्तु एक भारी विस्फोट होने से पुरु की सेना के हाथी भड़क गये और अपने ही सैनिकों को कुचलते हुए पीछे की ओर भाग खड़े हुए । महाराज पुरु भी घायल होकर गिर पड़े । अचेतावस्था में गिरफ्तारी के बाद जब महाराज पुरु को होश आया तो वे सिकन्दर के सामने थे ।
सिकन्दर ने हँसते हुए गर्व से कहा ---- ' पोरस ! बताओ कि अब तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाये । " सिकंदर सोचता था कि अब वे उसके सामने नत - मस्तक हो जायेंगे किन्तु महाराज पुरु ने स्वाभिमान पूर्वक सिर ऊँचा करके कहा ---- " सिकंदर ! वह व्यवहार , जो एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है । "
पुरु का वीरोचित उत्तर सुनकर सिकंदर प्रसन्न हुआ और उसके गले लग गया । भारतीयों की वीरता से सिकन्दर की सेना की हिम्मत पस्त हो गई थी , सिकंदर जानता था कि अब यदि वह आगे बढ़ने का आदेश देगा तो भयभीत सेना विद्रोह कर देगी । अत: सिकंदर चुपचाप भारतीय सीमाओं से बाहर चला गया ।
अभागे आम्भीक जैसे अनेक देशद्रोहियों के लाख कुत्सित प्रयत्नों के बावजूद भी एक अकेले देशभक्त पुरु ने भारतीय गौरव की लाज रखकर संसार को सिकंदर से पद - दलित होने से बचा लिया
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