' सच्चे महापुरुष का यही लक्षण होता है कि उनके घर के या उनके दल वाले ही उनका गुणगान नहीं करते वरन मतभेद रखने वाले , उदासीन और प्रतिपक्षी भी उनकी प्रशंसा करते हैं । कारण यही होता है कि वे जो कुछ करते हैं वह परोपकार की भावना से होता है , उसमे प्यार और नि:स्वार्थता का पूरा समावेश होता है । '
मालवीय जी का प्रतिदिन का यह नियम था कि वे नित्य कर्म से निवृत होकर कभी अकेले और कभी आचार्य ध्रुव जी के साथ छात्रावास या कॉलेज में जाकर निरीक्षण करते । छात्रावास में विद्दार्थियों का सुख - दुःख पूछते । वे पूछते व्यायाम करते हो या नहीं ? संध्या - वंदन करते हो या नहीं ? दूध पीते हो या नहीं ? आदि । एक दिन वे छात्रावास में जा रहे थे , एक लड़का आता हुआ दिखाई दिया । मालवीय जी ने उसे देखकर पूछा कि दूध पीते हो या नहीं ? उसने उत्तर दिया कि वह बहुत गरीब है , दूध के लिए पैसे कहाँ से लाये । मालवीय जी जब घर लौटे तो उसके लिए दूध का प्रबंध करा दिया ।
" जयकुमार नाम का छात्र आचार्य के अंतिम वर्ष की परीक्षा देने वाला था । पिता का स्वर्गवास हो जाने से वह घर गया । उसको लौटने में देर हो गई जिससे उपस्थिति में कमी पड़ गई और नियमानुसार परीक्षा में सम्मिलित होना असंभव हो गया । उसने मालवीय जी के सामने जाकर अपना प्रार्थना - पत्र रखा और यह श्लोक पढ़ा -------
या त्वरा द्रोपदी त्राने या त्वरा गजमोक्षणे ।
मध्यार्ते करुणानाथ ! सा त्वरा क्व गताहिते ।
" द्रोपदी के उद्धार और गजराज की रक्षा में आपने जो शीघ्रता प्रकट की थी , हे करुणामय ! मेरी विपत्ति के समय वह शीघ्रता कहाँ चली गई ? "
इसे बोलते हुए उसके नेत्रों से आँसू बहने लगे । मालवीय जी के नेत्रों में भी आँसू आ गये और प्रार्थना पत्र पर उसी समय उसे परीक्षा में सम्मिलित होने की स्वीकृति दे दी । तत्पश्चात वह छात्र प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया । "
ऐसी सैकड़ों घटनाएँ मालवीय जी के जीवन की हैं , जिनमे उन्होंने तरह -तरह से सहायता देकर बहुसंख्यक युवकों के जीवन को बर्बाद होने से बचा लिया और उनको भावी जीवन में सफलता प्राप्त करने का अवसर दिया ।
हिन्दू विश्वविद्दालय की सफलता और वहां के छात्रों तथा अध्यापकों को कर्तव्यपरायण तथा उन्नतिशील बनाने के लिए उन्होंने अपना जीवन ही अर्पण कर दिया ।
मालवीय जी का प्रतिदिन का यह नियम था कि वे नित्य कर्म से निवृत होकर कभी अकेले और कभी आचार्य ध्रुव जी के साथ छात्रावास या कॉलेज में जाकर निरीक्षण करते । छात्रावास में विद्दार्थियों का सुख - दुःख पूछते । वे पूछते व्यायाम करते हो या नहीं ? संध्या - वंदन करते हो या नहीं ? दूध पीते हो या नहीं ? आदि । एक दिन वे छात्रावास में जा रहे थे , एक लड़का आता हुआ दिखाई दिया । मालवीय जी ने उसे देखकर पूछा कि दूध पीते हो या नहीं ? उसने उत्तर दिया कि वह बहुत गरीब है , दूध के लिए पैसे कहाँ से लाये । मालवीय जी जब घर लौटे तो उसके लिए दूध का प्रबंध करा दिया ।
" जयकुमार नाम का छात्र आचार्य के अंतिम वर्ष की परीक्षा देने वाला था । पिता का स्वर्गवास हो जाने से वह घर गया । उसको लौटने में देर हो गई जिससे उपस्थिति में कमी पड़ गई और नियमानुसार परीक्षा में सम्मिलित होना असंभव हो गया । उसने मालवीय जी के सामने जाकर अपना प्रार्थना - पत्र रखा और यह श्लोक पढ़ा -------
या त्वरा द्रोपदी त्राने या त्वरा गजमोक्षणे ।
मध्यार्ते करुणानाथ ! सा त्वरा क्व गताहिते ।
" द्रोपदी के उद्धार और गजराज की रक्षा में आपने जो शीघ्रता प्रकट की थी , हे करुणामय ! मेरी विपत्ति के समय वह शीघ्रता कहाँ चली गई ? "
इसे बोलते हुए उसके नेत्रों से आँसू बहने लगे । मालवीय जी के नेत्रों में भी आँसू आ गये और प्रार्थना पत्र पर उसी समय उसे परीक्षा में सम्मिलित होने की स्वीकृति दे दी । तत्पश्चात वह छात्र प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया । "
ऐसी सैकड़ों घटनाएँ मालवीय जी के जीवन की हैं , जिनमे उन्होंने तरह -तरह से सहायता देकर बहुसंख्यक युवकों के जीवन को बर्बाद होने से बचा लिया और उनको भावी जीवन में सफलता प्राप्त करने का अवसर दिया ।
हिन्दू विश्वविद्दालय की सफलता और वहां के छात्रों तथा अध्यापकों को कर्तव्यपरायण तथा उन्नतिशील बनाने के लिए उन्होंने अपना जीवन ही अर्पण कर दिया ।
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