' जस्टिस रानाडे ( 1840 - 1901 ) उन महामानवों में से थे जो मार्ग में आने वाली कठिनाइयों और यातनाओं से न तो मुँह मोड़ते थे और न उनको बुरा कहते थे । वे अच्छी तरह जानते थे कि इस संसार में ' होम करते हाथ जलना ' अधिकांश में सत्य ही है । एक बार रानाडे ने स्वयं कहा था कि---- हमें अपनी यातनाओं को सहज ढंग से स्वीकार करना चाहिए । इस लिए नहीं कि पीड़ित होना कोई सुख की बात है , बल्कि इसलिए कि पीड़ा और यातना हमारे महान उद्देश्यों के सामने कुछ भी नहीं है । "
जब स्वामी दयानन्द प्रथम बार पूना पहुंचे और उन्होंने मूर्तिपूजा के विरुद्ध कई व्याख्यान दिए तो वहां के सनातनी उनसे बहुत चिढ़ गये । जब स्वामी जी पूना से जाने लगे तो उनके अनुयायिओं ने उनका एक बड़ा जुलुस निकालने का विचार किया , पर उनकी संख्या बहुत कम थी और विरोधी लोग बहुत अधिक थे । उन्होंने अपना विचार श्री रानाडे के सामने रखा तो उन्होंने जुलुस के सफलता पूर्वक निकलने का सब प्रबंध कर दिया ।
जब विरोधियों को इसकी खबर मिली तो उन्होंने स्वामी दयानन्द का अपमान करने के लिए उसी दिन ' गर्दभानन्दाचार्य ' की सवारी निकालने का निश्चय किया । दोनों दलों में कोई संघर्ष न हो इसके लिए जस्टिस रानाडे ने पुलिस का प्रबंध करा दिया और पुलिस से कह दिया कि जब तक हम न कहें कोई मार पीट नहीं करना ।
रानाडे स्वयं स्वामीजी के जुलूस के साथ चले । स्वामीजी का जुलूस बड़ी शान के साथ निकाला गया । इस जुलूस में आगे पालकी में ' वेद - भगवान ' विराजमान किये गये और उनके पीछे एक हाथी पर स्वामी दयानन्द को बिठाया गया था ।
विरोधियों ने पहले खूब शोरगुल मचाया , गालियाँ बकने लगे जब इससे कोई असर नहीं हुआ तो रास्ते से कीचड़ उठाकर फेंकने लगे । उस दिन वर्षा भी हो गई थी इसलिए कीचड़ हर जगह तैयार था । कुछ कीचड़ पुलिस वालों पर भी पड़ा , रानाडे ने पहले ही मना कर रखा था इसलिए वे चुप रहे । पर जब विरोधी लोग ईंट - पत्थर फेंकने लगे और कई ईंट रानाडे को भी लगीं तो उन्होंने सिपाहियों से भीड़ को शान्ति पूर्वक भगा देने को कहा ।
जुलूस किसी तरह अन्त तक पहुँच गया । रानाडे जब घर पहुंचे तो उनके कपडे कीचड़ से खराब हो गये थे । लोगों ने उनसे कहा ---- " आपके साथ तो इतने सिपाही थे , आप पर कीचड़ कैसे पड़ गया ? " रानाडे ने उत्तर दिया ---- " जब मैं जुलुस में था , तो अन्य लोगों के साथ कीचड़ मुझ पर पड़ना ही था , पर इसमें लड़ाई - झगड़ा अथवा मुकदमा चलाने की कोई बात नहीं । इस तरह के सार्वजनिक कार्यों में मतभेद और झड़प होती रहती हैं । ऐसे मामलों में मान - अपमान का विचार नहीं किया जाता । "
वास्तव में इस संसार में गुणों की ही पूजा होती है । सच्चा और स्थायी बड़प्पन उन्ही महापुरुषों को प्राप्त होता है जो दूसरों के लिए निष्काम भाव से परिश्रम और कष्ट सहन करते हैं ।
जब स्वामी दयानन्द प्रथम बार पूना पहुंचे और उन्होंने मूर्तिपूजा के विरुद्ध कई व्याख्यान दिए तो वहां के सनातनी उनसे बहुत चिढ़ गये । जब स्वामी जी पूना से जाने लगे तो उनके अनुयायिओं ने उनका एक बड़ा जुलुस निकालने का विचार किया , पर उनकी संख्या बहुत कम थी और विरोधी लोग बहुत अधिक थे । उन्होंने अपना विचार श्री रानाडे के सामने रखा तो उन्होंने जुलुस के सफलता पूर्वक निकलने का सब प्रबंध कर दिया ।
जब विरोधियों को इसकी खबर मिली तो उन्होंने स्वामी दयानन्द का अपमान करने के लिए उसी दिन ' गर्दभानन्दाचार्य ' की सवारी निकालने का निश्चय किया । दोनों दलों में कोई संघर्ष न हो इसके लिए जस्टिस रानाडे ने पुलिस का प्रबंध करा दिया और पुलिस से कह दिया कि जब तक हम न कहें कोई मार पीट नहीं करना ।
रानाडे स्वयं स्वामीजी के जुलूस के साथ चले । स्वामीजी का जुलूस बड़ी शान के साथ निकाला गया । इस जुलूस में आगे पालकी में ' वेद - भगवान ' विराजमान किये गये और उनके पीछे एक हाथी पर स्वामी दयानन्द को बिठाया गया था ।
विरोधियों ने पहले खूब शोरगुल मचाया , गालियाँ बकने लगे जब इससे कोई असर नहीं हुआ तो रास्ते से कीचड़ उठाकर फेंकने लगे । उस दिन वर्षा भी हो गई थी इसलिए कीचड़ हर जगह तैयार था । कुछ कीचड़ पुलिस वालों पर भी पड़ा , रानाडे ने पहले ही मना कर रखा था इसलिए वे चुप रहे । पर जब विरोधी लोग ईंट - पत्थर फेंकने लगे और कई ईंट रानाडे को भी लगीं तो उन्होंने सिपाहियों से भीड़ को शान्ति पूर्वक भगा देने को कहा ।
जुलूस किसी तरह अन्त तक पहुँच गया । रानाडे जब घर पहुंचे तो उनके कपडे कीचड़ से खराब हो गये थे । लोगों ने उनसे कहा ---- " आपके साथ तो इतने सिपाही थे , आप पर कीचड़ कैसे पड़ गया ? " रानाडे ने उत्तर दिया ---- " जब मैं जुलुस में था , तो अन्य लोगों के साथ कीचड़ मुझ पर पड़ना ही था , पर इसमें लड़ाई - झगड़ा अथवा मुकदमा चलाने की कोई बात नहीं । इस तरह के सार्वजनिक कार्यों में मतभेद और झड़प होती रहती हैं । ऐसे मामलों में मान - अपमान का विचार नहीं किया जाता । "
वास्तव में इस संसार में गुणों की ही पूजा होती है । सच्चा और स्थायी बड़प्पन उन्ही महापुरुषों को प्राप्त होता है जो दूसरों के लिए निष्काम भाव से परिश्रम और कष्ट सहन करते हैं ।
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