बहादुरशाह अच्छे शायर थे । ' जफर ' उनका उपनाम था । ' जफ़र ' नाममात्र के बादशाह थे , वे अपमान और परवशता के जीवन से मृत्यु को बेहतर समझते थे , उनकी यह व्यथा उनकी कृतियों में स्पष्ट हुई है ---- ' लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में -------
दो गज जमीन भी न मिली कुएँ ए यार में ।
20 सितम्बर 1858 का दिन था । अंतिम मुगल सम्राट किले में नजरबन्द थे । अपने मन की साध पूरी हो जाने का उस वृद्ध शहंशाह को सन्तोष था l स्वतंत्रता संग्राम में विजयश्री भले ही न मिली हो पर अन्याय का प्रतिकार करने के लिए वह उठ खड़ा तो हुआ था , इस सन्तोष की चमक उसके चेहरे पर थी l अंग्रेज सेनापति हडसन ने कक्ष में प्रवेश किया । । हडसन के साथ एक सैनिक भी था जिसके हाथ में बड़े से रेशमी रुमाल से ढका हुआ थाल था । हडसन ने बादशाह को अभिवादन करते हुए कहा --- " बादशाह सलामत ! कम्पनी ने आपसे दोस्ती का इजहार करते हुए आपकी खिदमत में यह नायाब तोहफा भेजा है । इसे कबूल फरमाएँ । " उसके इस कथन के साथ ही सैनिक ने थाल बहादुरशाह ' जफर ' के सामने कर दिया ।
कांपते हाथों से किन्तु दृढ ह्रदय से उन्होंने कपड़ा हटाया तो अंग्रेजों की क्रूरता निरावृत हो गई । उसमे बादशाह के पुत्रों के कटे हुए सिर थे ।
हडसन ने सोचा था कि बूढ़ा अपने बेटों के कटे सिर देखकर विलाप करेगा किन्तु इस संभावना के विपरीत वृद्ध पिता कुछ क्षण अपने पुत्रों के कटे सिरों की ओर देखकर अपनी नजरें हडसन के क्रूर चेहरे पर जमाते हुए निर्विकार भाव से कहा --- " अलह हम्दो लिल्लाह !"
तैमूर की औलाद ऐसे ही सुर्खरू होकर अपने बाप के सामने आया करती हैं । गजब का धैर्य था उनमे । 27 जनवरी 1859 को उन्हें रंगून के बंदीगृह में भेज दिया गया , सामान्य नागरिकों की तरह उन्हें बंदी जीवन भोगना पड़ा ।
कारावास के इस जीवन से जफर व्यथित नहीं थे , वे उसे अपने पापों के प्रायश्चित के रूप में ही लेते थे ।
दो गज जमीन भी न मिली कुएँ ए यार में ।
20 सितम्बर 1858 का दिन था । अंतिम मुगल सम्राट किले में नजरबन्द थे । अपने मन की साध पूरी हो जाने का उस वृद्ध शहंशाह को सन्तोष था l स्वतंत्रता संग्राम में विजयश्री भले ही न मिली हो पर अन्याय का प्रतिकार करने के लिए वह उठ खड़ा तो हुआ था , इस सन्तोष की चमक उसके चेहरे पर थी l अंग्रेज सेनापति हडसन ने कक्ष में प्रवेश किया । । हडसन के साथ एक सैनिक भी था जिसके हाथ में बड़े से रेशमी रुमाल से ढका हुआ थाल था । हडसन ने बादशाह को अभिवादन करते हुए कहा --- " बादशाह सलामत ! कम्पनी ने आपसे दोस्ती का इजहार करते हुए आपकी खिदमत में यह नायाब तोहफा भेजा है । इसे कबूल फरमाएँ । " उसके इस कथन के साथ ही सैनिक ने थाल बहादुरशाह ' जफर ' के सामने कर दिया ।
कांपते हाथों से किन्तु दृढ ह्रदय से उन्होंने कपड़ा हटाया तो अंग्रेजों की क्रूरता निरावृत हो गई । उसमे बादशाह के पुत्रों के कटे हुए सिर थे ।
हडसन ने सोचा था कि बूढ़ा अपने बेटों के कटे सिर देखकर विलाप करेगा किन्तु इस संभावना के विपरीत वृद्ध पिता कुछ क्षण अपने पुत्रों के कटे सिरों की ओर देखकर अपनी नजरें हडसन के क्रूर चेहरे पर जमाते हुए निर्विकार भाव से कहा --- " अलह हम्दो लिल्लाह !"
तैमूर की औलाद ऐसे ही सुर्खरू होकर अपने बाप के सामने आया करती हैं । गजब का धैर्य था उनमे । 27 जनवरी 1859 को उन्हें रंगून के बंदीगृह में भेज दिया गया , सामान्य नागरिकों की तरह उन्हें बंदी जीवन भोगना पड़ा ।
कारावास के इस जीवन से जफर व्यथित नहीं थे , वे उसे अपने पापों के प्रायश्चित के रूप में ही लेते थे ।
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