गणेश शंकर विद्दार्थी ( 1890 - 1931 ) आर्थिक कठिनाइयों के कारण उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके । फिर भी उन्होंने अपने ज्ञान - भण्डार को इतना बढ़ा लिया था कि उनके निर्देशन व संपादन में
' प्रताप ' समस्त हिन्दी पत्रों में अग्रणी बन गया तथा उनकी रचनाएँ हजारों व्यक्तियों की प्रेरणा स्रोत बन गईं । इसका आधार उनका स्वाध्याय प्रेम ही था l वे बाहर रहे या जेल में उन्होंने अपना समय कभी बेकार नहीं गंवाया , सदा कुछ न कुछ पढ़ते ही रहे l
जेल - प्रवास के समय पर उन्होंने स्टुअर्ट मिल , स्पेंसर , रूसो , मोपांसा , रस्किन , कार्लाइल , टालस्टाय, थोरो , शेक्सपियर , बर्नार्ड शा , वेल्स आदि यूरोप और अम्रीका के सब विद्वानों और विचारकों की रचनाएँ पढ़ीं । जेल में ही उन्होंने विक्टर ह्यूगो का प्रसिद्ध उपन्यास ' नाइंटी थ्री ' और ' ला मिजरेबिल्स ' उपन्यासों को पढ़ा और उनका हिन्दी में अनुवाद किया ।
विक्टर ह्यूगो के उपन्यासों का अनुवाद साधारण लेखक नहीं कर सकता , उसके अनुवादक की लेखनी में उतनी ही आग , वैसी ही करुणा , उतनी ही वेदना और वैसी ही सजीवता होनी चाहिए
विद्दार्थी जी की लेखनी इन सब गुणों से परिप्लावित थी l उन्होंने अपने नाम के साथ जो ' विद्दार्थी ' शब्द जोड़ा था उसका आशय भी स्वाध्याय की भावना को प्रकट करना था । उनका कहना था -----
' प्रत्येक मनुष्य जीवन भर विद्दार्थी अथवा एक साधक ही रहता है l जिन्दगी भर वह कुछ न कुछ सीखता ही रहता है , फिर भी उसका ज्ञान - भण्डार अधूरा ही रहता है l संसार उसकी विशाल पाठशाला है और वह उसका एक तुच्छ विदार्थी l
' प्रताप ' समस्त हिन्दी पत्रों में अग्रणी बन गया तथा उनकी रचनाएँ हजारों व्यक्तियों की प्रेरणा स्रोत बन गईं । इसका आधार उनका स्वाध्याय प्रेम ही था l वे बाहर रहे या जेल में उन्होंने अपना समय कभी बेकार नहीं गंवाया , सदा कुछ न कुछ पढ़ते ही रहे l
जेल - प्रवास के समय पर उन्होंने स्टुअर्ट मिल , स्पेंसर , रूसो , मोपांसा , रस्किन , कार्लाइल , टालस्टाय, थोरो , शेक्सपियर , बर्नार्ड शा , वेल्स आदि यूरोप और अम्रीका के सब विद्वानों और विचारकों की रचनाएँ पढ़ीं । जेल में ही उन्होंने विक्टर ह्यूगो का प्रसिद्ध उपन्यास ' नाइंटी थ्री ' और ' ला मिजरेबिल्स ' उपन्यासों को पढ़ा और उनका हिन्दी में अनुवाद किया ।
विक्टर ह्यूगो के उपन्यासों का अनुवाद साधारण लेखक नहीं कर सकता , उसके अनुवादक की लेखनी में उतनी ही आग , वैसी ही करुणा , उतनी ही वेदना और वैसी ही सजीवता होनी चाहिए
विद्दार्थी जी की लेखनी इन सब गुणों से परिप्लावित थी l उन्होंने अपने नाम के साथ जो ' विद्दार्थी ' शब्द जोड़ा था उसका आशय भी स्वाध्याय की भावना को प्रकट करना था । उनका कहना था -----
' प्रत्येक मनुष्य जीवन भर विद्दार्थी अथवा एक साधक ही रहता है l जिन्दगी भर वह कुछ न कुछ सीखता ही रहता है , फिर भी उसका ज्ञान - भण्डार अधूरा ही रहता है l संसार उसकी विशाल पाठशाला है और वह उसका एक तुच्छ विदार्थी l
No comments:
Post a Comment