' यों जनता सामान्यत: शासन की गतिविधियों , क्रिया कलापों तथा नीतियों से इतना सारोकार नहीं रखती जितना कि अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन तथा सुविधाओं से । सरकार चाहे जिन कारणों से जनता पर कर भार तथा दूसरे बोझ डालती रहे , वह बिना कुछ कहे सहती , उठाती जाती है ।
लेकिन फिर भी सहनशीलता की एक सीमा होती है और जब वह सीमा पार कर जाती है तो वहां की सरकारी नीतियों और लादे गये बोझों से जन आक्रोश फूट पड़ता है ।
फिर भले ही सरकार राष्ट्रीय हो या विदेशी , जनता के क्रोध से उसका बच पाना मुश्किल क्या असंभव ही रहता है । जनता के पास मनोबल होता है , ऊब होती है , विद्रोही भावनाएं और शक्ति होती है और वह भले ही निहत्थी हो सरकार से टकरा जाती है । ऐसी दशा में विद्रोह को कुचलने के लिए सरकार भी कुछ बाकी नहीं रखती । अपनी सैनिक शक्ति और शस्त्र - बल को जो जनता के पैसे और खून - पसीने से ही अर्जित होता है , उसी को दमित करने में लगा देती है ।
' स्पष्टत: यह जन - कल्याण और स्वार्थ - लिप्सा के बीच का संघर्ष है । जीत किसी भी पक्ष की हो, सह्रदय विचारशील व्यक्तियों का समर्थन तो जनता के पक्ष में ही जाता है ।
1936 की बात है ---- स्पेन में गृह युद्ध छिड़ा हुआ था --- एक ओर निहत्थी शोषित जनता और दूसरी ओर बर्बर फासिस्ट सरकार । एक देश चिली की सरकार नहीं चाहती थी कि वहां का कोई भी नागरिक स्पेन जनता का पक्ष ले । परन्तु संसार उस समय हक्का - बक्का रह गया जब चिली के राजनायिक अधिकारी पाब्लेनेरुदा ने जो उन दिनों स्पेन में राजनायिक अधिकारी थे अपनी सहानुभूति स्पेन की निहत्थी जनता के साथ होने की बात कही । दूसरे राष्ट्रों के मामलों में राजनायिक अधिकारी का कुछ कहना उस देश की जिसका कि वह प्रतिनिधित्व कर रहा है अन्तिम राय मानी जाती है । चिली सरकार को जब यह पता चला तो स्पेन से पाब्लोनेरुदा को वापस बुला लिया । इसके पूर्व ही वे स्पेन छोड़ चुके थे ।
यह बात नेरुदा ने अपने आपको सर्वप्रथम मनुष्य होने के नाते कही थी , किसी देश विशेष का प्रतिनिधि होने के नाते नहीं ।
पाब्लोनेरुदा मूलतः कवि थे और एक ऐसे कवि जिसने अपनी कविताओं को स्याही से अधिक लहू से लिखा था । उनकी कविताएँ उस वर्ग के प्रति सहानुभूति और करुणा जाग्रत करती थीं जो शताब्दियों से समाज के अभिजात कुलों द्वारा पैरों तले रौंदा जाता रहा है ।
उनकी कविताओं में गरीबों व दीन - दुःखियों के के प्रति सहानुभूति ही नहीं आक्रोश भी उभरता है जो उस व्यवस्था को तहस - नहस कर देने के लिए उत्सुक है । इस द्रष्टि से उनकी कविताएँ जीवन्त और प्राणवान रहीं ।
लेकिन फिर भी सहनशीलता की एक सीमा होती है और जब वह सीमा पार कर जाती है तो वहां की सरकारी नीतियों और लादे गये बोझों से जन आक्रोश फूट पड़ता है ।
फिर भले ही सरकार राष्ट्रीय हो या विदेशी , जनता के क्रोध से उसका बच पाना मुश्किल क्या असंभव ही रहता है । जनता के पास मनोबल होता है , ऊब होती है , विद्रोही भावनाएं और शक्ति होती है और वह भले ही निहत्थी हो सरकार से टकरा जाती है । ऐसी दशा में विद्रोह को कुचलने के लिए सरकार भी कुछ बाकी नहीं रखती । अपनी सैनिक शक्ति और शस्त्र - बल को जो जनता के पैसे और खून - पसीने से ही अर्जित होता है , उसी को दमित करने में लगा देती है ।
' स्पष्टत: यह जन - कल्याण और स्वार्थ - लिप्सा के बीच का संघर्ष है । जीत किसी भी पक्ष की हो, सह्रदय विचारशील व्यक्तियों का समर्थन तो जनता के पक्ष में ही जाता है ।
1936 की बात है ---- स्पेन में गृह युद्ध छिड़ा हुआ था --- एक ओर निहत्थी शोषित जनता और दूसरी ओर बर्बर फासिस्ट सरकार । एक देश चिली की सरकार नहीं चाहती थी कि वहां का कोई भी नागरिक स्पेन जनता का पक्ष ले । परन्तु संसार उस समय हक्का - बक्का रह गया जब चिली के राजनायिक अधिकारी पाब्लेनेरुदा ने जो उन दिनों स्पेन में राजनायिक अधिकारी थे अपनी सहानुभूति स्पेन की निहत्थी जनता के साथ होने की बात कही । दूसरे राष्ट्रों के मामलों में राजनायिक अधिकारी का कुछ कहना उस देश की जिसका कि वह प्रतिनिधित्व कर रहा है अन्तिम राय मानी जाती है । चिली सरकार को जब यह पता चला तो स्पेन से पाब्लोनेरुदा को वापस बुला लिया । इसके पूर्व ही वे स्पेन छोड़ चुके थे ।
यह बात नेरुदा ने अपने आपको सर्वप्रथम मनुष्य होने के नाते कही थी , किसी देश विशेष का प्रतिनिधि होने के नाते नहीं ।
पाब्लोनेरुदा मूलतः कवि थे और एक ऐसे कवि जिसने अपनी कविताओं को स्याही से अधिक लहू से लिखा था । उनकी कविताएँ उस वर्ग के प्रति सहानुभूति और करुणा जाग्रत करती थीं जो शताब्दियों से समाज के अभिजात कुलों द्वारा पैरों तले रौंदा जाता रहा है ।
उनकी कविताओं में गरीबों व दीन - दुःखियों के के प्रति सहानुभूति ही नहीं आक्रोश भी उभरता है जो उस व्यवस्था को तहस - नहस कर देने के लिए उत्सुक है । इस द्रष्टि से उनकी कविताएँ जीवन्त और प्राणवान रहीं ।
No comments:
Post a Comment