' वार्ड नं. 6 ' नामक नाटक में इस तथ्य को बताया गया है कि ' हिंसा और अत्याचार को रोकने के लिए निष्क्रिय विरोध , उपेक्षा व उदासीनता से काम नहीं चलता , उसे रोकने के लिए अदम्य और कठोर संघर्ष की आवश्यकता है तभी उसमे सफल हुआ जा सकता है । '
'वार्ड नं. 6 ' नाटक ---- एक पागलखाने की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है । इस नाटक का नायक डॉ. रैगिन पागलों के अस्पताल का सुपरिंटेंडेंट होता है । डॉ. बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है , उसकी सबसे बड़ी आकांक्षा है ----- अस्पताल में सुधार करने की । लेकिन अनुकूल वातावरण के अभाव में वह कुछ कर नहीं पाता और निराश होकर बैठ जाता है । सुधार की तीव्र आकांक्षा है --- परन्तु प्रतिकूलताओं के विरुद्ध लड़ने का जरा भी साहस नहीं है और जब मन में दबी आकांक्षा जागती है और कुछ करने को बाध्य करती है तो प्रतिकूलताओं से लड़ने में अक्षम होने के कारण वह यह सोच कर मन को समझा लेता है कि---- मैं तो अपने कर्तव्य का पालन पूरी ईमानदारी से कर रहा हूँ । जो कुछ हो रहा है उसके लिए मैं तनिक भी दोषी नहीं हूँ ।
अस्पताल की व्यवस्था और संचालन पद्धति में वह कोई सुधार नहीं कर पाता । इसका परिणाम यह हुआ कि पागलखाने के रसोइये तक उसकी अवज्ञा करने लगे । अस्पताल की अव्यवस्था बढती गई और एक दिन वहां का जमादार अस्पताल का संरक्षक बन बैठा । जमादार रोगियों और कर्मचारियों से दुर्व्यवहार करता उन्हें मारता - पीटता । रोगी और कर्मचारी जब शिकायत लेकर डॉ. के पास जाते तो वह उन्हें सैद्धांतिक उपदेश देने लगता और कर्मचारी इस उपदेश को मानने से इन्कार करते थे । पीड़ित और प्रताड़ित व्यक्ति को उपदेशों का मरहम कब तक सुखी रख सकता है । उनमे घंटों वाद विवाद चलता जिसमे डॉ. रैगिन की निष्क्रियता और उदासीनता तथा कर्मचारियों द्वारा हिंसा तथा अत्याचार के विरुद्ध कठोर संघर्ष की भावना स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होती है । यह विवाद बढ़ता ही जाता है और एक दिन ऐसा आता है कि डॉ. रैगिन को पागल और विक्षिप्त करार देकर उसी पागलखाने के वार्ड नं. 6 में भर्ती करा दिया जाता है ।
इस नाटक को देखकर हिंसा और अत्याचार के विरुद्ध इतना तीव्र आवेग उत्पन्न होता है कि जब लेनिन ने इसे देखा तो वे इतने व्यग्र हो उठे कि अपने स्थान पर बैठ न सके । उन्ही के शब्दों में उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि जैसे वे स्वयं भी इस नाटक के पात्र हों ।
'वार्ड नं. 6 ' नाटक ---- एक पागलखाने की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है । इस नाटक का नायक डॉ. रैगिन पागलों के अस्पताल का सुपरिंटेंडेंट होता है । डॉ. बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है , उसकी सबसे बड़ी आकांक्षा है ----- अस्पताल में सुधार करने की । लेकिन अनुकूल वातावरण के अभाव में वह कुछ कर नहीं पाता और निराश होकर बैठ जाता है । सुधार की तीव्र आकांक्षा है --- परन्तु प्रतिकूलताओं के विरुद्ध लड़ने का जरा भी साहस नहीं है और जब मन में दबी आकांक्षा जागती है और कुछ करने को बाध्य करती है तो प्रतिकूलताओं से लड़ने में अक्षम होने के कारण वह यह सोच कर मन को समझा लेता है कि---- मैं तो अपने कर्तव्य का पालन पूरी ईमानदारी से कर रहा हूँ । जो कुछ हो रहा है उसके लिए मैं तनिक भी दोषी नहीं हूँ ।
अस्पताल की व्यवस्था और संचालन पद्धति में वह कोई सुधार नहीं कर पाता । इसका परिणाम यह हुआ कि पागलखाने के रसोइये तक उसकी अवज्ञा करने लगे । अस्पताल की अव्यवस्था बढती गई और एक दिन वहां का जमादार अस्पताल का संरक्षक बन बैठा । जमादार रोगियों और कर्मचारियों से दुर्व्यवहार करता उन्हें मारता - पीटता । रोगी और कर्मचारी जब शिकायत लेकर डॉ. के पास जाते तो वह उन्हें सैद्धांतिक उपदेश देने लगता और कर्मचारी इस उपदेश को मानने से इन्कार करते थे । पीड़ित और प्रताड़ित व्यक्ति को उपदेशों का मरहम कब तक सुखी रख सकता है । उनमे घंटों वाद विवाद चलता जिसमे डॉ. रैगिन की निष्क्रियता और उदासीनता तथा कर्मचारियों द्वारा हिंसा तथा अत्याचार के विरुद्ध कठोर संघर्ष की भावना स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होती है । यह विवाद बढ़ता ही जाता है और एक दिन ऐसा आता है कि डॉ. रैगिन को पागल और विक्षिप्त करार देकर उसी पागलखाने के वार्ड नं. 6 में भर्ती करा दिया जाता है ।
इस नाटक को देखकर हिंसा और अत्याचार के विरुद्ध इतना तीव्र आवेग उत्पन्न होता है कि जब लेनिन ने इसे देखा तो वे इतने व्यग्र हो उठे कि अपने स्थान पर बैठ न सके । उन्ही के शब्दों में उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि जैसे वे स्वयं भी इस नाटक के पात्र हों ।
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