' किसी को ईश्वर सम्पदा , विभूति अथवा सामर्थ्य देता है तो निश्चित रूप से उसके साथ कोई न कोई सद्प्रयोजन जुड़ा होता है । मनुष्य को समझना चाहिए की यह विशेष अनुदान उसे किसी समाजोपयोगी कार्य के लिए मिला है । अत: उस पर अपना अधिकार न मानकर सम्पूर्ण समाज का अधिकार मानना चाहिए । जहाँ वह व्यक्तिगत सम्पदा - सामर्थ्य मान लिया जाता है वहीँ वह अहंकार का कारण बन जाता है । अहंकार आ जाने पर व्यक्ति को हर कोई झूठी प्रशंसा करके अपने पथ से विचलित कर देता है वह समाजवादी से व्यक्तिवादी बन जाता है । यह व्यक्तिवाद उसकी सामर्थ्य को निरर्थक बना देता है ।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि राजपूत चरित्र , वीरता , साहस , शौर्य और आन - बान में मुगलों से हजार गुना अच्छे थे । ये सब गुण राजपूतों ने व्यक्तिगत महत्ता के रूप में लिए । ये गुण उनके अहंकार को बढ़ाने वाले और मातृभूमि के दायित्वों से परान्मुख बनाने वाले सिद्ध हुए । उनमे शक्ति के सदुपयोग और एकता की भावना का अभाव था ।
राजपूत राजाओं के इस मिथ्याभिमान का लाभ मुगलों ने उठाया । राजपूत राजाओं ने मुगलों से दोस्ती की , किन्तु यह मित्रता नीतिसंगत और व्यवहारिक नहीं थी , यह तो बेर और कदली के सामीप्य जैसी मित्रता थी । इसके फलस्वरूप राजपूतों का गौरव तो कम हुआ ही और पराधीनता का कलंक भी भारत भूमि को ढोना पड़ा । उनके रहते हमारे देव - मन्दिर अपमानित हुए , माँ - बहिनों का अपमान हुआ । फिर उस शौर्य की क्या सार्थकता रही ?
जोधपुर के राजा जसवंतसिंह अति पराक्रमी थे । उन्हें अपनी वीरता पर आवश्यकता से अधिक गर्व था । क्रूर व अन्यायी औरंगजेब ने उनसे मित्रता का हाथ बढ़ाया, तो उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया । जसवंतसिंह की वीरता और पराक्रम से औरंगजेब ने जी भरकर लाभ उठाया । औरंगजेब उनकी वीरता से मन ही मन भयभीत रहता था कि यदि जसवंतसिंह बदल गए तो उसकी ' आलमगीरी ' धरी रह जायेगी । अत: उसने जसवंतसिंह को ही नहीं उसके पुत्रों को भी धोखे से मरवा दिया और जोधपुर राज्य को हथिया लिया ।
कुटिल की मित्रता और अपना अति अभिमान उनकी मृत्यु का कारण ही नहीं बना वरन उनके परिवार और राज्य पर संकट आने का कारण भी बना । अत: व्यक्ति को यह देखना चाहिए कि उसके गुणों का , योग्यता का लाभ गलत व्यक्ति तो नहीं उठा रहे हैं । अन्यथा यह अच्छाइयां भी राजा जसवंतसिंह के पराक्रम की तरह निरर्थक चलीं जायेंगी ।
राणा हम्मीर , महाराणा प्रताप , महाराणा राजसिंह की तरह उन्होंने भी लोलुप और शिथिल चरित्र मुगल सम्राटों से मित्रता न की होती और संगठित होकर उन्हें पराजित किया होता तो दासता का कलंक उनके माथे पर नहीं लगता ।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि राजपूत चरित्र , वीरता , साहस , शौर्य और आन - बान में मुगलों से हजार गुना अच्छे थे । ये सब गुण राजपूतों ने व्यक्तिगत महत्ता के रूप में लिए । ये गुण उनके अहंकार को बढ़ाने वाले और मातृभूमि के दायित्वों से परान्मुख बनाने वाले सिद्ध हुए । उनमे शक्ति के सदुपयोग और एकता की भावना का अभाव था ।
राजपूत राजाओं के इस मिथ्याभिमान का लाभ मुगलों ने उठाया । राजपूत राजाओं ने मुगलों से दोस्ती की , किन्तु यह मित्रता नीतिसंगत और व्यवहारिक नहीं थी , यह तो बेर और कदली के सामीप्य जैसी मित्रता थी । इसके फलस्वरूप राजपूतों का गौरव तो कम हुआ ही और पराधीनता का कलंक भी भारत भूमि को ढोना पड़ा । उनके रहते हमारे देव - मन्दिर अपमानित हुए , माँ - बहिनों का अपमान हुआ । फिर उस शौर्य की क्या सार्थकता रही ?
जोधपुर के राजा जसवंतसिंह अति पराक्रमी थे । उन्हें अपनी वीरता पर आवश्यकता से अधिक गर्व था । क्रूर व अन्यायी औरंगजेब ने उनसे मित्रता का हाथ बढ़ाया, तो उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया । जसवंतसिंह की वीरता और पराक्रम से औरंगजेब ने जी भरकर लाभ उठाया । औरंगजेब उनकी वीरता से मन ही मन भयभीत रहता था कि यदि जसवंतसिंह बदल गए तो उसकी ' आलमगीरी ' धरी रह जायेगी । अत: उसने जसवंतसिंह को ही नहीं उसके पुत्रों को भी धोखे से मरवा दिया और जोधपुर राज्य को हथिया लिया ।
कुटिल की मित्रता और अपना अति अभिमान उनकी मृत्यु का कारण ही नहीं बना वरन उनके परिवार और राज्य पर संकट आने का कारण भी बना । अत: व्यक्ति को यह देखना चाहिए कि उसके गुणों का , योग्यता का लाभ गलत व्यक्ति तो नहीं उठा रहे हैं । अन्यथा यह अच्छाइयां भी राजा जसवंतसिंह के पराक्रम की तरह निरर्थक चलीं जायेंगी ।
राणा हम्मीर , महाराणा प्रताप , महाराणा राजसिंह की तरह उन्होंने भी लोलुप और शिथिल चरित्र मुगल सम्राटों से मित्रता न की होती और संगठित होकर उन्हें पराजित किया होता तो दासता का कलंक उनके माथे पर नहीं लगता ।
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