सामर्थ्य बढ़ने के साथ ही मनुष्य के दायित्व भी बढ़ते हैं । ज्ञानी पुरुष बढ़ती सामर्थ्य का उपयोग पीड़ितों के कष्ट दूर करने एवं भटकी मानवता को सही दिशा दिखाने में करते हैं और अज्ञानी उसी सामर्थ्य का उपयोग अहंकार के पोषण और दूसरों के अपमान के लिए करते हैं ।
' पद जितना बढ़ा होता है , सामर्थ्य उतनी ही ज्यादा और दायित्व उतने ही गम्भीर । सामर्थ्य का गरिमा पूर्ण एवं न्यायसंगत निर्वाह ही श्रेष्ठ मार्ग है । '
' पद जितना बढ़ा होता है , सामर्थ्य उतनी ही ज्यादा और दायित्व उतने ही गम्भीर । सामर्थ्य का गरिमा पूर्ण एवं न्यायसंगत निर्वाह ही श्रेष्ठ मार्ग है । '
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