त्याग और बलिदान ऐसे गुण हैं जिनके आधार पर ही किसी व्यक्ति को म्हणता और स्थायी मान्यता प्राप्त हो सकती है | हमारा यश तभी टिकाऊ हो सकता है जब हम समाज के कल्याण को प्राथमिकता देकर कुछ त्याग और बलिदान करेंगे ।
जिन लोगों ने धन - वैभव के बल पर कीर्ति और मान्यता प्राप्त करनी चाही उनकी नामवरी उनके जीवन काल तक ही सीमित रही । जब तक वे अपना ठाठ - बाट दिखाते रहे और खुशामद करने वालों को रुपया - पैसा देते रहे तभी तक बहुत से लोग ' धर्म - मूरत ' और ' अन्नदाता ' कहकर उनको ऊँचा चढ़ाते रहे , पर जैसे ही उनका निधन हुआ या किसी कारणवश उनकी सम्पति का अंत हो गया तो लोग भी आँखें फेर लेते हैं ।
वर्तमान युग में महात्मा गाँधी ने देशोद्धार के लिये सब प्रकार के कष्टों को सहा , प्राणों का भय बिलकुल त्याग दिया और ब्रिटिश साम्राज्य की तोपों के सामने सीना खोल कर खड़े हो गए तो जनता पर उनका ऐसा जादू चला कि सारा देश एक साथ उनका अनुयायी बन गया । जिन लोगों से किसी प्रकार के त्याग की आशा न थी वे भी अपना घर - बार और स्वार्थ त्याग कर हँसते हुए जेल चले गये । सामान्य लोगों ने अंग्रेजी रायफलों की गोलियां खाकर प्राण देने में जरा भी भय नहीं किया । यह एक असाधारण द्रश्य था जिसकी कल्पना पर कोई विश्वास नहीं करता था ।
उसी युग में क्रान्तिदल के वीरों ने अपूर्व साहस और आत्म - त्याग का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया , परन्तु तत्कालीन परिस्थितियों के कारण उसका प्रभाव सामान्य जनता तक पूर्ण रूप से नहीं पहुंचा ।
इसी तरह महाराणा प्रताप के महान त्याग और तपस्या का ही परिणाम था कि उनके पास धन - सम्पति का सर्वथा अभाव होने पर भी उन्हें लगातार राजपूत और भील सहायक मिलते रहे , जो उन्ही की तरह कष्ट सहकर बिना वेतन के सैनिक और कार्यकर्ताओं का कर्तव्य पूरा करते रहे । स्वामी - सेवक अथवा नेता - अनुयायी का इस प्रकार का नि:स्वार्थ आत्मत्याग एक ऐसा स्वर्गीय द्रश्य होता है , जो कभी - कभी ही संसार में दिखाई देता है ।
जिन लोगों ने धन - वैभव के बल पर कीर्ति और मान्यता प्राप्त करनी चाही उनकी नामवरी उनके जीवन काल तक ही सीमित रही । जब तक वे अपना ठाठ - बाट दिखाते रहे और खुशामद करने वालों को रुपया - पैसा देते रहे तभी तक बहुत से लोग ' धर्म - मूरत ' और ' अन्नदाता ' कहकर उनको ऊँचा चढ़ाते रहे , पर जैसे ही उनका निधन हुआ या किसी कारणवश उनकी सम्पति का अंत हो गया तो लोग भी आँखें फेर लेते हैं ।
वर्तमान युग में महात्मा गाँधी ने देशोद्धार के लिये सब प्रकार के कष्टों को सहा , प्राणों का भय बिलकुल त्याग दिया और ब्रिटिश साम्राज्य की तोपों के सामने सीना खोल कर खड़े हो गए तो जनता पर उनका ऐसा जादू चला कि सारा देश एक साथ उनका अनुयायी बन गया । जिन लोगों से किसी प्रकार के त्याग की आशा न थी वे भी अपना घर - बार और स्वार्थ त्याग कर हँसते हुए जेल चले गये । सामान्य लोगों ने अंग्रेजी रायफलों की गोलियां खाकर प्राण देने में जरा भी भय नहीं किया । यह एक असाधारण द्रश्य था जिसकी कल्पना पर कोई विश्वास नहीं करता था ।
उसी युग में क्रान्तिदल के वीरों ने अपूर्व साहस और आत्म - त्याग का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया , परन्तु तत्कालीन परिस्थितियों के कारण उसका प्रभाव सामान्य जनता तक पूर्ण रूप से नहीं पहुंचा ।
इसी तरह महाराणा प्रताप के महान त्याग और तपस्या का ही परिणाम था कि उनके पास धन - सम्पति का सर्वथा अभाव होने पर भी उन्हें लगातार राजपूत और भील सहायक मिलते रहे , जो उन्ही की तरह कष्ट सहकर बिना वेतन के सैनिक और कार्यकर्ताओं का कर्तव्य पूरा करते रहे । स्वामी - सेवक अथवा नेता - अनुयायी का इस प्रकार का नि:स्वार्थ आत्मत्याग एक ऐसा स्वर्गीय द्रश्य होता है , जो कभी - कभी ही संसार में दिखाई देता है ।
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