' स्वार्थ में डूबी दुनिया का यह एक स्पष्ट चित्र है कि जिससे किसी प्रकार के लाभ की आशा होती है , अपना कोई मतलब पूरा होता जान पड़ता है , उससे लोग अनेक बहानों से जान - पहचान निकाल कर मधुर बातें करने लगते हैं और जब मतलब निकल जाता है अथवा वह स्वयं शक्तिहीन हो जाता है तो कोई उसकी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखता |'
बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यास कार श्री शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय ने देशबंधु चितरंजनदास के सम्बन्ध में एक लेख ' स्मृति कथा ' वसुमती नामक मासिक पत्रिका में प्रकाशित कराया , उसमे देशबंधु के जीवन प्रसंगों को प्रकट करते हुए लिखा था ---- " पराधीन जाति का एक बड़ा अभिशाप यह होता है कि हमको अपने मुक्ति संग्राम में विदेशियों की अपेक्षा अपने देश के लोगों से ही अधिक लड़ाई लड़नी पड़ती है | "
देश्बंधुदास बैरिस्टरी में लाखों कमाते थे और उदारता पूर्वक लोगों की सहायता में खर्च कर डालते थे लेकिन 1927 में कांग्रेस के समय उनकी स्थिति अकस्मात बहुत बदल गई | इस समय राजनीतिक आन्दोलन में मतभेद हो जाने से छोटे - छोटे लोग भी उनकी निंदा करने लगे | बंगाल के सब अख़बार असत्य बातें लिखकर विरोधी प्रचार कर रहे थे । जिस घर में एक समय बैठने को भी स्थान नहीं मिलता था , उसमे क्या मित्र , क्या शत्रु किसी के पाँव की धूल भी दिखाई नहीं पड़ती थी ।
फिर जब समय बदला तो बाहरी लोगों और पद प्राप्त करने के अभिलाषियों की इतनी भीड़ वहां पर होने लगी कि अपने खास कार्य कर्ताओं को बात करने का मौका भी नहीं मिलता ।
पर देश्बंधुदास इतने उदार और विशाल ह्रदय वाले महापुरुष थे कि लोगों की इस स्वार्थपरता को खूब अच्छी तरह समझते हुए भी किसी को यथा संभव निराश नहीं करते थे और प्रत्येक आगंतुक की अभिलाषा को परिस्थिति के अनुसार पूरा करने का प्रयत्न अवश्य करते थे ।
बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यास कार श्री शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय ने देशबंधु चितरंजनदास के सम्बन्ध में एक लेख ' स्मृति कथा ' वसुमती नामक मासिक पत्रिका में प्रकाशित कराया , उसमे देशबंधु के जीवन प्रसंगों को प्रकट करते हुए लिखा था ---- " पराधीन जाति का एक बड़ा अभिशाप यह होता है कि हमको अपने मुक्ति संग्राम में विदेशियों की अपेक्षा अपने देश के लोगों से ही अधिक लड़ाई लड़नी पड़ती है | "
देश्बंधुदास बैरिस्टरी में लाखों कमाते थे और उदारता पूर्वक लोगों की सहायता में खर्च कर डालते थे लेकिन 1927 में कांग्रेस के समय उनकी स्थिति अकस्मात बहुत बदल गई | इस समय राजनीतिक आन्दोलन में मतभेद हो जाने से छोटे - छोटे लोग भी उनकी निंदा करने लगे | बंगाल के सब अख़बार असत्य बातें लिखकर विरोधी प्रचार कर रहे थे । जिस घर में एक समय बैठने को भी स्थान नहीं मिलता था , उसमे क्या मित्र , क्या शत्रु किसी के पाँव की धूल भी दिखाई नहीं पड़ती थी ।
फिर जब समय बदला तो बाहरी लोगों और पद प्राप्त करने के अभिलाषियों की इतनी भीड़ वहां पर होने लगी कि अपने खास कार्य कर्ताओं को बात करने का मौका भी नहीं मिलता ।
पर देश्बंधुदास इतने उदार और विशाल ह्रदय वाले महापुरुष थे कि लोगों की इस स्वार्थपरता को खूब अच्छी तरह समझते हुए भी किसी को यथा संभव निराश नहीं करते थे और प्रत्येक आगंतुक की अभिलाषा को परिस्थिति के अनुसार पूरा करने का प्रयत्न अवश्य करते थे ।
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