चार्ल्स ब्रैडला इंग्लैंड के प्रसिद्ध अनीश्वरवादी प्रचारक थे लेकिन वो गरीबों के सच्चे मित्र थे और जहाँ कहीं भी अन्याय होता देखते थे , वहीँ उसका विरोध करते थे । गरीब लोगों को तो वो अपना आत्मीय की तरह समझते थे और तन - मन - धन से उनकी सहायता करने को तत्पर रहते थे । इस कारण गरीब लोगों की बहुत बड़ी संख्या उनकी समर्थक थी ।
श्री ब्रैडला की जन प्रियता की परीक्षा उस समय हुई जब एक बार पार्लियामेंट के ' लिबरल ' और ' कंजरवेटिव ' दोनों दलों ने मिलकर तरह - तरह की चालें चलकर , झूठे आक्षेप लगाकर श्री ब्रैडला को चुनाव में हरा दिया इससे वहां की गरीब जनता इतनी उत्तेजित हो गई कि उसने विरोधी दल वालों के मकानों पर हमला कर दिया । इस खून - खराबे को रोकने के लिए बहुत थके होने पर भी श्री ब्रैडला वहां आये और अपने अनुयायिओं को ऐसा करने से रोका और फिर अमरीका चले गए ।
इसके पश्चात क्रोधित जनता ने ' मरकरी ' नामक एक लिबरल पार्टी के समाचार पत्र के दफ्तर पर हमला कर उसे पूर्णत: नष्ट कर डाला क्योंकि इस पत्र में श्री ब्रैडला के विरुद्ध बड़ा जहर उगला जाता था और उन पर ऐसे जघन्य आरोप लगाये जाते थे कि निष्पक्ष व्यक्ति को भी रोष आ जाता था । इस घटना के समय श्रीमती ऐनी बेसेन्ट वहां मौजूद थीं , यह सब देख उन्होंने महसूस किया कि प्रजातंत्र के नाम पर होने वाले चुनावों में कितनी उत्तेजना और दलबंदी हो सकती है ।
जब दूसरी बार 1880 में ही ब्रैडला चुन लिए गए तो जनता खुशी के मारे नाचने लगी । पर अमीर लोग ऐसी कोई चाल सोच रहे थे जिससे इस ' अनीश्वरवादी ' और धनी लोगों के शत्रु को जड़ से उखाड़ डाला जाये । ऐसा मौका उन्हें मिल गया - पार्लियामेंट ' की सदस्यता ग्रहण करते समय ईश्वर के नाम की शपथ लेनी पड़ती थी पर ब्रैडला ने केवल प्रतिज्ञा की , ईश्वर के नाम की शपथ लेने को तैयार नहीं हुए ।
उनके विरोधियों ने इस बहाने से कानूनी अड़चन डाल कर उन्हें सार्जेंट से बाहर निकलवा दिया और दो दिन कैद रखा । इस अन्याय के विरुद्ध कानून बन चुका था । फिर दुबारा चुनाव कराया गया , इसमें श्री ब्रैडला को पहले से भी ज्यादा वोट मिले और उन्हें पार्लियामेंट में स्थान मिल सका । वहां वे गरीबों और अन्याय पीड़ितों के पक्ष में भाषण करते रहते थे । 1890 में उनको निमंत्रित कर भारत बुलाया गया था , उन्होंने भारत की राष्ट्रीय कांग्रेस में देश की मांगों और अधिकारों का जोरदार समर्थन किया ।
वास्तव में श्री ब्रैडला उन व्यक्तियों में से थे जो धर्म का आडम्बर न करके उसके सार को ग्रहण करते थे । यद्दपि वे गिरजाघर या मन्दिर - मस्जिद में जाकर ईश्वर को नहीं पुकारते थे , पर जिन दीन - दुःखियों के भीतर आत्म रूपी परमात्मा को व्यथित होता देखते तो तुरन्त उसकी सेवा - सहायता को दौड़ते थे ।
श्री ब्रैडला की जन प्रियता की परीक्षा उस समय हुई जब एक बार पार्लियामेंट के ' लिबरल ' और ' कंजरवेटिव ' दोनों दलों ने मिलकर तरह - तरह की चालें चलकर , झूठे आक्षेप लगाकर श्री ब्रैडला को चुनाव में हरा दिया इससे वहां की गरीब जनता इतनी उत्तेजित हो गई कि उसने विरोधी दल वालों के मकानों पर हमला कर दिया । इस खून - खराबे को रोकने के लिए बहुत थके होने पर भी श्री ब्रैडला वहां आये और अपने अनुयायिओं को ऐसा करने से रोका और फिर अमरीका चले गए ।
इसके पश्चात क्रोधित जनता ने ' मरकरी ' नामक एक लिबरल पार्टी के समाचार पत्र के दफ्तर पर हमला कर उसे पूर्णत: नष्ट कर डाला क्योंकि इस पत्र में श्री ब्रैडला के विरुद्ध बड़ा जहर उगला जाता था और उन पर ऐसे जघन्य आरोप लगाये जाते थे कि निष्पक्ष व्यक्ति को भी रोष आ जाता था । इस घटना के समय श्रीमती ऐनी बेसेन्ट वहां मौजूद थीं , यह सब देख उन्होंने महसूस किया कि प्रजातंत्र के नाम पर होने वाले चुनावों में कितनी उत्तेजना और दलबंदी हो सकती है ।
जब दूसरी बार 1880 में ही ब्रैडला चुन लिए गए तो जनता खुशी के मारे नाचने लगी । पर अमीर लोग ऐसी कोई चाल सोच रहे थे जिससे इस ' अनीश्वरवादी ' और धनी लोगों के शत्रु को जड़ से उखाड़ डाला जाये । ऐसा मौका उन्हें मिल गया - पार्लियामेंट ' की सदस्यता ग्रहण करते समय ईश्वर के नाम की शपथ लेनी पड़ती थी पर ब्रैडला ने केवल प्रतिज्ञा की , ईश्वर के नाम की शपथ लेने को तैयार नहीं हुए ।
उनके विरोधियों ने इस बहाने से कानूनी अड़चन डाल कर उन्हें सार्जेंट से बाहर निकलवा दिया और दो दिन कैद रखा । इस अन्याय के विरुद्ध कानून बन चुका था । फिर दुबारा चुनाव कराया गया , इसमें श्री ब्रैडला को पहले से भी ज्यादा वोट मिले और उन्हें पार्लियामेंट में स्थान मिल सका । वहां वे गरीबों और अन्याय पीड़ितों के पक्ष में भाषण करते रहते थे । 1890 में उनको निमंत्रित कर भारत बुलाया गया था , उन्होंने भारत की राष्ट्रीय कांग्रेस में देश की मांगों और अधिकारों का जोरदार समर्थन किया ।
वास्तव में श्री ब्रैडला उन व्यक्तियों में से थे जो धर्म का आडम्बर न करके उसके सार को ग्रहण करते थे । यद्दपि वे गिरजाघर या मन्दिर - मस्जिद में जाकर ईश्वर को नहीं पुकारते थे , पर जिन दीन - दुःखियों के भीतर आत्म रूपी परमात्मा को व्यथित होता देखते तो तुरन्त उसकी सेवा - सहायता को दौड़ते थे ।
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