' जिनको कोई आंतरिक या बाह्य परिस्थिति अपने लक्ष्य की ओर प्रगति करते रहने से विरत कर देती है उनकी लगन में कमी होती है । ऐसी कच्ची लगन के लोग एक साधारण से कारण और छोटा सा बहाना पाकर मन्द पड़ जाते हैं और तब न तो बड़ी सफलता प्राप्त कर पाते हैं और न उल्लेखनीय प्रगति ही कर पाते हैं । पर लाला लाजपतराय ने अपने जीवन में आने वाले गतिरोध को ईश्वर की किसी बड़ी इच्छा का रहस्य माना और अपने पास न तो कातरता आने दी और न निराशा । '
जिन दिनों लाला लाजपतराय लाहौर में पढ़ने के बाद दिल्ली आये तो वहां बीमार पड़ गये, फिर स्वस्थ होते ही उन्होंने लुधियाना के मिशन हाई स्कूल में प्रवेश लिया और तन्मयता से पढ़ने लगे , यहाँ भी वे बीमार हो गए और कुछ समय के लिए उन्हें विद्दालय छोड़ देना पड़ा । बीमारी से संघर्ष करते हुए वे बराबर पढ़ते रहे । उन्ही दिनों उनके पिता की बदली अम्बाला हो गई अत: वे अपने पिता के पास अम्बाला चले गए । किन्तु उनके धैर्य की परीक्षा अभी समाप्त नहीं हुई ।
अम्बाला आकर वे फिर बीमार हो गए , इस बार उन्हें एक भयंकर फोड़ा निकल आया ।
इन्ही आपत्ति के दिनों में उन्होंने एक बंगाली विद्वान की सहायता से अंग्रेजी और पिता के सहयोग से उर्दू , फारसी और गणित की अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली । वे रोग को अन्य गतिरोधों की तरह हेय समझकर उसका उपाय भी करते रहे और अध्ययन का क्रम भी चलाते रहे ।
धैर्य , संयम , पथ्य और उपचार के बल पर लाजपतराय ने अपने स्वास्थ्य को पुन: प्राप्त कर लिया और मैट्रिक की परीक्षा देकर सफल हो गए । बार - बार की इस बीमारी से उन्हें बड़ा क्षोभ हुआ ।
वे सोचने लगे कि यदि रोगों का यह शत्रु इसी प्रकार आगे भी उनके पीछे पड़ा रहा तो वे भविष्य के मनोनीत कर्तव्य किस प्रकार पूरे कर सकेंगे ।
अत: उन्होंने एक दिन अपने जीवन क्रम का आमूल सम्पादन कर डाला । कमियों , त्रुटियों और कृत्रिमताओं को निकाल फेंकने के साथ - साथ कठोर संयम , नियमित दिनचर्या और युक्ताहार विहार की ऊँची और अटूट प्राचीर से अपने स्वास्थ्य की किलेबन्दी कर दी । जिसके फलस्वरूप उनका स्वास्थ्य ऐसे रोग रूपी शत्रुओं से सदा सर्वदा के लिए सुरक्षित हो गया ।
जिन दिनों लाला लाजपतराय लाहौर में पढ़ने के बाद दिल्ली आये तो वहां बीमार पड़ गये, फिर स्वस्थ होते ही उन्होंने लुधियाना के मिशन हाई स्कूल में प्रवेश लिया और तन्मयता से पढ़ने लगे , यहाँ भी वे बीमार हो गए और कुछ समय के लिए उन्हें विद्दालय छोड़ देना पड़ा । बीमारी से संघर्ष करते हुए वे बराबर पढ़ते रहे । उन्ही दिनों उनके पिता की बदली अम्बाला हो गई अत: वे अपने पिता के पास अम्बाला चले गए । किन्तु उनके धैर्य की परीक्षा अभी समाप्त नहीं हुई ।
अम्बाला आकर वे फिर बीमार हो गए , इस बार उन्हें एक भयंकर फोड़ा निकल आया ।
इन्ही आपत्ति के दिनों में उन्होंने एक बंगाली विद्वान की सहायता से अंग्रेजी और पिता के सहयोग से उर्दू , फारसी और गणित की अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली । वे रोग को अन्य गतिरोधों की तरह हेय समझकर उसका उपाय भी करते रहे और अध्ययन का क्रम भी चलाते रहे ।
धैर्य , संयम , पथ्य और उपचार के बल पर लाजपतराय ने अपने स्वास्थ्य को पुन: प्राप्त कर लिया और मैट्रिक की परीक्षा देकर सफल हो गए । बार - बार की इस बीमारी से उन्हें बड़ा क्षोभ हुआ ।
वे सोचने लगे कि यदि रोगों का यह शत्रु इसी प्रकार आगे भी उनके पीछे पड़ा रहा तो वे भविष्य के मनोनीत कर्तव्य किस प्रकार पूरे कर सकेंगे ।
अत: उन्होंने एक दिन अपने जीवन क्रम का आमूल सम्पादन कर डाला । कमियों , त्रुटियों और कृत्रिमताओं को निकाल फेंकने के साथ - साथ कठोर संयम , नियमित दिनचर्या और युक्ताहार विहार की ऊँची और अटूट प्राचीर से अपने स्वास्थ्य की किलेबन्दी कर दी । जिसके फलस्वरूप उनका स्वास्थ्य ऐसे रोग रूपी शत्रुओं से सदा सर्वदा के लिए सुरक्षित हो गया ।
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