' महापुरुषों के सम्पर्क में आकर अपनी योग्यता और प्रतिभा को अदभुत ढंग से विकसित किया जा सकता है । '
स्वामी विवेकानन्द का प्रथम भाषण सुनने के बाद मार्ग्रेट नोबुल ( भगिनी निवेदिता ) ने अपनी डायरी में लिखा ---- " ऐसे चिन्तन शील व्यक्ति का दर्शन मुझे आज तक नहीं हुआ था । " दूसरे दिन स्वामीजी के ये वाक्य उनके ह्रदय में प्रवेश कर गए ---- " जो अनन्त और असीम है वही अभूत है , वही शाश्वत है । उसे छोड़कर संसार की समस्त विषय वस्तु नाशवान है , अस्थायी है । "
उसी समय से उन्होंने स्वामीजी को अपने गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया ।
जिस प्रकार श्री रामकृष्ण ने विवेकानन्द को तैयार किया था उसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द ने निवेदिता को अपने कार्य के लिए तैयार किया था और केवल उनका नाम ही परिवर्तन नहीं किया किन्तु सम्पूर्ण जीवन को ही परिवर्तित कर दिया ।
मार्ग्रेट की आत्मा सदैव सत्य की खोज में रहती थी । स्वामीजी से प्रथम भेंट और विचार - विमर्श में उन्होंने यह अनुभव किया कि --- मनुष्य जो लक्ष्य लेकर धरती पर अवतरित होता है उसकी प्राप्ति में भारतीय अध्यात्म स्पष्ट सहायक हो सकता है । भारतीय धर्म , संस्कृति एवं उपनिषदों में वह सामर्थ्य है जो आत्मा को संतुष्टि और शाश्वत शान्ति प्रदान कर सकते हैं ।
स्वामीजी का कहना था ----- पहले अपने ह्रदय में झांककर अपनी आत्मा को पहचानो , उससे शक्ति ग्रहण करो और फिर कार्य क्षेत्र में नि:स्वार्थ और फल की आशा से रहित ईश्वर - सेवा में परिणत हो ।
स्वामी विवेकानन्द का प्रथम भाषण सुनने के बाद मार्ग्रेट नोबुल ( भगिनी निवेदिता ) ने अपनी डायरी में लिखा ---- " ऐसे चिन्तन शील व्यक्ति का दर्शन मुझे आज तक नहीं हुआ था । " दूसरे दिन स्वामीजी के ये वाक्य उनके ह्रदय में प्रवेश कर गए ---- " जो अनन्त और असीम है वही अभूत है , वही शाश्वत है । उसे छोड़कर संसार की समस्त विषय वस्तु नाशवान है , अस्थायी है । "
उसी समय से उन्होंने स्वामीजी को अपने गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया ।
जिस प्रकार श्री रामकृष्ण ने विवेकानन्द को तैयार किया था उसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द ने निवेदिता को अपने कार्य के लिए तैयार किया था और केवल उनका नाम ही परिवर्तन नहीं किया किन्तु सम्पूर्ण जीवन को ही परिवर्तित कर दिया ।
मार्ग्रेट की आत्मा सदैव सत्य की खोज में रहती थी । स्वामीजी से प्रथम भेंट और विचार - विमर्श में उन्होंने यह अनुभव किया कि --- मनुष्य जो लक्ष्य लेकर धरती पर अवतरित होता है उसकी प्राप्ति में भारतीय अध्यात्म स्पष्ट सहायक हो सकता है । भारतीय धर्म , संस्कृति एवं उपनिषदों में वह सामर्थ्य है जो आत्मा को संतुष्टि और शाश्वत शान्ति प्रदान कर सकते हैं ।
स्वामीजी का कहना था ----- पहले अपने ह्रदय में झांककर अपनी आत्मा को पहचानो , उससे शक्ति ग्रहण करो और फिर कार्य क्षेत्र में नि:स्वार्थ और फल की आशा से रहित ईश्वर - सेवा में परिणत हो ।
No comments:
Post a Comment