' धीरता वह सद्गुण है जो ऊँची मनोभूमि और समतल धरातल वाले वीर पुरुषों की शोभा है । यही धीरता और विचार संतुलन की शक्ति किसी वीर को आततायी और शक्ति - मत्त होने से रोकती है , जिससे उसके उठाये हुए कदम ऊँचे - नीचे न पड़कर ठीक स्थान पर और ठीक दिशा में पड़ते हैं । '
शिवाजी के पिता शाहजी बीजापुर दरबार में मनसब थे । शिवाजी अभी किशोर ही थे , उनके व्यक्तित्व और गुणों की चर्चा सुन कर सुल्तान उनसे मिलने को उत्सुक हो उठा और उसने आदेश की भाषा में शिवा को दरबार में लाने को कहा । शिवाजी ने बहुत मना किया लेकिन मुरार पन्त ने उन्हें समझाया कि ऐसा करने से हिन्दुओं की आवाज में बल आयेगा । अत: शिवा ने पिता के साथ दरबार जाने का निश्चय कर लिया ।
रास्ते भर शाहजी शिवाजी को समझाते रहे कि दरबार में पहुँच कर जमीन तक झुक कर बादशाह को कोर्निश करना , बतलाई जगह पर बैठना । उन्होंने दरबार के सारे तौर तरीके समझाये । फिर भी जब शिवाजी दरबार पहुंचे तो सर्वोच्च आसन पर यवन बादशाह को देखकर उनका खून खौल उठा और बिना कोर्निश किये वे पिता के पास जाकर बैठ गए । बड़ा भयानक साहस था , सारा दरबार सिहर उठा । मुरार पन्त ने कहा -- आलम पनाह ! बच्चे की पहली नजानकारी को मुआफ फरमाये । आइन्दा ऐसी गलती नहीं करेगा ।
शिवाजी की इच्छा हुई कि शेर की तरह दहाड़ कर पूरे दरबार को बता दें कि वे इस मलेच्छ बादशाह को कभी कोर्निश नहीं करेंगे , यह उनके स्वाभिमान के विरुद्ध है । किन्तु वे वीर होने के साथ धीर भी थे , देशकाल के अनुसार अपने आवेगों को नियंत्रित करना भी जानते थे ।
अब शिवाजी प्राय: नित्य ही दरबार जाते , किन्तु कोर्निश कभी नहीं करते । साधारण
नमस्कार कर अपने स्थान पर बैठ जाते । आखिर एक दिन बादशाह ने पूछ ही लिया ---- "
शिवा , क्या तुमको दरबारी तौर - तरीके सिखाये नहीं गए ?
चतुर बुद्धि शिवाजी ने स्थिति समझ ली और वह चाल चली कि ' सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे ' । वे सामान्य भाव से बोले ---- " पिताजी ने मुझे दरबार के सारे रीति- रिवाज भली प्रकार बतला दिए । लेकिन मैं आपको बादशाह से अधिक अपने पिता के समान मानता हूँ । इसलिए कोर्निश करने में मुझे बनावट जैसी मालूम होती है । मेरा निवेदन है कि आप मुझे ऐसे बनावटी शिष्टाचार न करने की छूट देकर क्षमा करें । "
और शिवाजी को दरबार में कोर्निश न करने की छूट मिल गई ।
यही प्रत्युत्पन्न बुद्धि है जो छली , कपटी और दुष्ट दुरात्माओं से बचाती और पार लगाती है ।
शिवाजी के पिता शाहजी बीजापुर दरबार में मनसब थे । शिवाजी अभी किशोर ही थे , उनके व्यक्तित्व और गुणों की चर्चा सुन कर सुल्तान उनसे मिलने को उत्सुक हो उठा और उसने आदेश की भाषा में शिवा को दरबार में लाने को कहा । शिवाजी ने बहुत मना किया लेकिन मुरार पन्त ने उन्हें समझाया कि ऐसा करने से हिन्दुओं की आवाज में बल आयेगा । अत: शिवा ने पिता के साथ दरबार जाने का निश्चय कर लिया ।
रास्ते भर शाहजी शिवाजी को समझाते रहे कि दरबार में पहुँच कर जमीन तक झुक कर बादशाह को कोर्निश करना , बतलाई जगह पर बैठना । उन्होंने दरबार के सारे तौर तरीके समझाये । फिर भी जब शिवाजी दरबार पहुंचे तो सर्वोच्च आसन पर यवन बादशाह को देखकर उनका खून खौल उठा और बिना कोर्निश किये वे पिता के पास जाकर बैठ गए । बड़ा भयानक साहस था , सारा दरबार सिहर उठा । मुरार पन्त ने कहा -- आलम पनाह ! बच्चे की पहली नजानकारी को मुआफ फरमाये । आइन्दा ऐसी गलती नहीं करेगा ।
शिवाजी की इच्छा हुई कि शेर की तरह दहाड़ कर पूरे दरबार को बता दें कि वे इस मलेच्छ बादशाह को कभी कोर्निश नहीं करेंगे , यह उनके स्वाभिमान के विरुद्ध है । किन्तु वे वीर होने के साथ धीर भी थे , देशकाल के अनुसार अपने आवेगों को नियंत्रित करना भी जानते थे ।
अब शिवाजी प्राय: नित्य ही दरबार जाते , किन्तु कोर्निश कभी नहीं करते । साधारण
नमस्कार कर अपने स्थान पर बैठ जाते । आखिर एक दिन बादशाह ने पूछ ही लिया ---- "
शिवा , क्या तुमको दरबारी तौर - तरीके सिखाये नहीं गए ?
चतुर बुद्धि शिवाजी ने स्थिति समझ ली और वह चाल चली कि ' सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे ' । वे सामान्य भाव से बोले ---- " पिताजी ने मुझे दरबार के सारे रीति- रिवाज भली प्रकार बतला दिए । लेकिन मैं आपको बादशाह से अधिक अपने पिता के समान मानता हूँ । इसलिए कोर्निश करने में मुझे बनावट जैसी मालूम होती है । मेरा निवेदन है कि आप मुझे ऐसे बनावटी शिष्टाचार न करने की छूट देकर क्षमा करें । "
और शिवाजी को दरबार में कोर्निश न करने की छूट मिल गई ।
यही प्रत्युत्पन्न बुद्धि है जो छली , कपटी और दुष्ट दुरात्माओं से बचाती और पार लगाती है ।
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