राजर्षि पुरुषोतम दास टंडन जो कुछ मुख से कहते थे , या दूसरों को जैसा उपदेश देते थे , वैसा ही आचरण स्वयं करते थे । 1905 में स्वदेशी आन्दोलन के समय यह कहा गया कि विदेश से आने वाली दानेदार चीनी कभी नहीं खानी चाहिए , क्योंकि उसे गाय - बैलों की हड्डियों की राख से धोया जाता है । उस समय अनेक लोगों के साथ आपने भी उसको व्यवहार में न लाने की प्रतिज्ञा की । अन्य लोग तो भारतवर्ष में ही वैसी दानेदार चीनी बनना आरम्भ होने पर उसे खाने लग गए , पर टन्डन जी ने एक बार उसके बजाय देशी गुड़ खाने की प्रतिज्ञा की तो जीवन के अंत तक उसे पूरी तरह निबाहा । इस प्रतिज्ञा के फलस्वरूप उन्होंने कभी चीनी या उससे बनी मिठाइयाँ चखी नहीं ।
इसी प्रकार जब गौ - रक्षा के लिए यह आन्दोलन उठाया गया कि बूट जूतों के लिए लाखों गायें काटी जाती हैं और बढ़िया चमड़े के लिए तो जीवित गायों को घोर कष्ट देकर उनका चमड़ा उतारा जाता है , तो टन्डन जी ने चमड़े के जूते का भी त्याग कर दिया । तब से आजन्म आप रोप सोल या अन्य प्रकार के बिना चमड़े की चप्पल पहनते थे
। टन्डन जी के चरित्र की द्रढ़ता , उनकी सत्यवादिता तथा त्याग वृति पर सभी दल के व्यक्तियों को इतनी अधिक आस्था थी कि कोई उनके कथन का प्रतिवाद करने का साहस नहीं करता था ।
इसी प्रकार जब गौ - रक्षा के लिए यह आन्दोलन उठाया गया कि बूट जूतों के लिए लाखों गायें काटी जाती हैं और बढ़िया चमड़े के लिए तो जीवित गायों को घोर कष्ट देकर उनका चमड़ा उतारा जाता है , तो टन्डन जी ने चमड़े के जूते का भी त्याग कर दिया । तब से आजन्म आप रोप सोल या अन्य प्रकार के बिना चमड़े की चप्पल पहनते थे
। टन्डन जी के चरित्र की द्रढ़ता , उनकी सत्यवादिता तथा त्याग वृति पर सभी दल के व्यक्तियों को इतनी अधिक आस्था थी कि कोई उनके कथन का प्रतिवाद करने का साहस नहीं करता था ।
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