' अपनी दुष्प्रवृतियों को नियंत्रित कर लेना ही साधना है । व्यक्ति जब आत्म - निरीक्षण करता है , अपने दोषों को मार भगाने का प्रयास करता है , तो साधारण सा मनुष्य असाधारण महत्व के कार्य संपन्न करने लगता है । '
' व्यक्तित्व का परिष्कार कर लेना ही सिद्धि है । '
मुन्शीराम तथा स्वामी श्रद्धानन्द एक ही व्यक्ति के दो नाम हैं । किन्तु दोनों में अन्तर उतना ही है जितना एक तख्त के दोनों तरफ के पाटों में , जिन्हें एक और काला तथा एक और सफेद पोत दो स्वामी जी का नाम पहले मुन्शीराम था । वे अपने प्रारम्भिक जीवन में बड़े ही कुमार्गगामी थे । सुरापान से लेकर वेश्यागमन तक सारे ही दुर्गुण इनमे थे । पिता कोतवाल थे । किसी प्रकार की कोई रोक - टोक नहीं थी और कोई आर्थिक समस्या भी नहीं थी ।
स्वामी श्रद्धानन्द की पत्नी का नाम था शिवदेवी ! सेवा , त्याग , नम्रता , उदारता , सहिष्णुता की साकार प्रतिमा । ये इनके सब दोषों को देखकर भी इनमे ' परमेश्वर ' के समान भक्ति रखती थीं , इनको भोजन कराये बिना स्वयं कभी भोजन नहीं करतीं थी और सोने से पूर्व अवश्य ही इनके पैर दबाती थीं ।
एक दिन की बात है ----- यह दिन स्वामीजी के जीवन का वह निर्णायक दिन था जब उनकी सोयी हुई आत्मा जागी ------
स्वामीजी अपने कुसंगी मित्रों के साथ किसी नृत्य - संगीत की सभा में गए और रात दो या तीन बजे अत्याधिक मदिरापान करके वापस आये । गाडी से उतरकर अन्दर आते ही शराब के नशे के कारण इनको खूब उल्टी हुई । जिससे तमाम वस्त्र खराब हो गए । इनकी पत्नी ने बिना कुछ कहे - सुने इनकी पूरी सफाई की और वस्त्र बदलवाकर लिटा दिया । वे सो गये परन्तु शिवदेवी पैर दबाती रहीं , पंखा झलती हुई बैठी रहीं । सुबह जागने पर जब मुन्शीराम जी ने इनको इस प्रकार बैठे देखा , आंटा गुंथा रखा है , सिगड़ी जल रही है तो इन्हें रात की सब घटना स्मरण आई , उनका ह्रदय चीत्कार कर उठा , सोचा , मेरे कारण न जाने कितनी रातें इसे यों ही भूखे सो जाना पड़ा होगा । उनका मन पश्चाताप की अग्नि में जलने लगा और उस दिन से उनने अपनी समस्त दुर्बलताओं , दुर्व्यसनों को त्यागने की प्रतिज्ञा कर ली , उस दिन से उनके जीवन की दिशा मुड़ी तो ऐसी मुड़ी कि फिर पीछे की और मुड़कर भी नहीं देखा । विवेक का सूर्योदय हुआ --- तो फिर ऐसा कि अन्धकार को चीरता हुआ गगन पर चढ़ता ही गया ।
अब उनका एक ही पथ था ---- समाज सेवा l उस समय का सबसे बड़ा युग धर्म था --- भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराना । अत: एक वीर सेनानी की भांति स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़े । उनकी लेखनी ने भी वह काम किया कि लोग लेख पढ़ते और अपनी जीवन दिशा बदलने की प्रेरणा ग्रहण करते l उन दिनों आप ' आर्य संन्यासी ' के नाम से विख्यात थे । दिल्ली में तब स्वामीजी का इतना प्रभाव था कि आपकी एक आवाज पर लाखों स्वयं सेवक अपनी जान हथेली पर लिए तैयार रहते थे । सब लोग उन्हें दिल्ली का बेताज बादशाह कहते थे ।
' गुरुकुल कांगड़ी ' की स्थापना उनका हिन्दी को ऊँचा उठाने का सफल प्रयोग था ।
गुरुकुल के बच्चों तथा वयस्कों को वे सदा यही उपदेश देते थे कि ----- अच्छे बनो , उत्कृष्ट जीवन जियो और ऐसा कुछ करते रहो जो स्वार्थ की सीमाओं से परे हो , लोक मंगल के लिए हो ।
' व्यक्तित्व का परिष्कार कर लेना ही सिद्धि है । '
मुन्शीराम तथा स्वामी श्रद्धानन्द एक ही व्यक्ति के दो नाम हैं । किन्तु दोनों में अन्तर उतना ही है जितना एक तख्त के दोनों तरफ के पाटों में , जिन्हें एक और काला तथा एक और सफेद पोत दो स्वामी जी का नाम पहले मुन्शीराम था । वे अपने प्रारम्भिक जीवन में बड़े ही कुमार्गगामी थे । सुरापान से लेकर वेश्यागमन तक सारे ही दुर्गुण इनमे थे । पिता कोतवाल थे । किसी प्रकार की कोई रोक - टोक नहीं थी और कोई आर्थिक समस्या भी नहीं थी ।
स्वामी श्रद्धानन्द की पत्नी का नाम था शिवदेवी ! सेवा , त्याग , नम्रता , उदारता , सहिष्णुता की साकार प्रतिमा । ये इनके सब दोषों को देखकर भी इनमे ' परमेश्वर ' के समान भक्ति रखती थीं , इनको भोजन कराये बिना स्वयं कभी भोजन नहीं करतीं थी और सोने से पूर्व अवश्य ही इनके पैर दबाती थीं ।
एक दिन की बात है ----- यह दिन स्वामीजी के जीवन का वह निर्णायक दिन था जब उनकी सोयी हुई आत्मा जागी ------
स्वामीजी अपने कुसंगी मित्रों के साथ किसी नृत्य - संगीत की सभा में गए और रात दो या तीन बजे अत्याधिक मदिरापान करके वापस आये । गाडी से उतरकर अन्दर आते ही शराब के नशे के कारण इनको खूब उल्टी हुई । जिससे तमाम वस्त्र खराब हो गए । इनकी पत्नी ने बिना कुछ कहे - सुने इनकी पूरी सफाई की और वस्त्र बदलवाकर लिटा दिया । वे सो गये परन्तु शिवदेवी पैर दबाती रहीं , पंखा झलती हुई बैठी रहीं । सुबह जागने पर जब मुन्शीराम जी ने इनको इस प्रकार बैठे देखा , आंटा गुंथा रखा है , सिगड़ी जल रही है तो इन्हें रात की सब घटना स्मरण आई , उनका ह्रदय चीत्कार कर उठा , सोचा , मेरे कारण न जाने कितनी रातें इसे यों ही भूखे सो जाना पड़ा होगा । उनका मन पश्चाताप की अग्नि में जलने लगा और उस दिन से उनने अपनी समस्त दुर्बलताओं , दुर्व्यसनों को त्यागने की प्रतिज्ञा कर ली , उस दिन से उनके जीवन की दिशा मुड़ी तो ऐसी मुड़ी कि फिर पीछे की और मुड़कर भी नहीं देखा । विवेक का सूर्योदय हुआ --- तो फिर ऐसा कि अन्धकार को चीरता हुआ गगन पर चढ़ता ही गया ।
अब उनका एक ही पथ था ---- समाज सेवा l उस समय का सबसे बड़ा युग धर्म था --- भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराना । अत: एक वीर सेनानी की भांति स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़े । उनकी लेखनी ने भी वह काम किया कि लोग लेख पढ़ते और अपनी जीवन दिशा बदलने की प्रेरणा ग्रहण करते l उन दिनों आप ' आर्य संन्यासी ' के नाम से विख्यात थे । दिल्ली में तब स्वामीजी का इतना प्रभाव था कि आपकी एक आवाज पर लाखों स्वयं सेवक अपनी जान हथेली पर लिए तैयार रहते थे । सब लोग उन्हें दिल्ली का बेताज बादशाह कहते थे ।
' गुरुकुल कांगड़ी ' की स्थापना उनका हिन्दी को ऊँचा उठाने का सफल प्रयोग था ।
गुरुकुल के बच्चों तथा वयस्कों को वे सदा यही उपदेश देते थे कि ----- अच्छे बनो , उत्कृष्ट जीवन जियो और ऐसा कुछ करते रहो जो स्वार्थ की सीमाओं से परे हो , लोक मंगल के लिए हो ।
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