पंत जी प्रकाण्ड विधि वेत्ता , संसदीय विषयों के जानकार और कुशल प्रशासक थे | एक ही व्यक्ति में इतनी सारी क्षमताएं होना एक आश्चर्य का विषय है । कोई भी कार्य उनके लिए असंभव नहीं था ।
विषद काल में धैर्य धारण किये रहना , ऐश्वर्य के समय विनम्र और क्षमाशील बने रहना ,
सभा मंडपों में प्रखर वक्तृत्व देना , सुयश में अभिरुचि रखना और शास्त्रों के स्वाध्याय में प्रमाद न करना आदि सद्गुणों से तो उन्होंने अपने आपको विभूषित किया था । इनसे भी बड़ी थी उनकी आन्तरिक निर्मलता , उदार ह्रद्यता, दृढ़ नैतिक आस्था , गहन अन्तद्रष्टि और सबके लिए सहज आत्मीयता रखने की आध्यात्मिक विभूतियाँ जिनके कारण उनका व्यक्तित्व महान बनता गया । '
वे सच्चे नेता थे । धुआंधार भाषणों , टीका - टिपण्णी और विरोधियों की निन्दा करना कभी उनकी नीति नहीं रही । वे बोलते थे तो ऐसा बोलते थे कि श्रोता मन्त्र मुग्ध हो सुना करते थे । देश के हर नागरिक को उन्होंने अपना आत्मीय स्वजन समझा । उनके पास जो भी गया , अपनी जैसी भी समस्या लेकर गया , पन्त जी ने उसका हल अवश्य किया ।
1934 की बात है ---- एक सज्जन हरिकृष्ण त्रिवेदी , सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लेने के कारण कुछ समय की जेल काटने के बाद उनके पास पहुंचे । पन्त जी ने उन्हें बड़ा स्नेह दिया , आन्दोलन में भाग लेने की प्रशंसा भी की । फिर यह पूछने पर कि अब क्या करने का विचार है ?
वे सज्जन बोले ---- बेकारों का एक संगठन ब पर उन्हें सीख अवश्य मिल गई नाने का विचार है ।
इस पर पन्त जी उन्हें फटकारने से पीछे नहीं रहे और कहा ----- " क्या मूर्खों की जमात में अपना नाम लिखाओगे ? जिनके पास बुद्धि होती है वे बेकार नहीं रहते । "
फटकारने के तुरन्त बाद ही उन्होंने सहायता देने का प्रस्ताव भी रखा --- " अल्मोड़ा जिले के उद्दोग धन्धों की स्थिति का अध्ययन कर कोई योजना बना लाओ तब आगे की बात बताऊंगा । "
योजना तो उन महाशय ने नहीं बनायीं पर उन्हें सीख मिल गई और वे समाचार पात्र के सम्पादकीय विभाग में काम करने लगे ।
उनका व्यक्तित्व एक ऐसा सघन तरु था जिसके नीचे कितने ही थकित पथिकों ने कुछ क्षण को विश्राम कर , अपनी क्लान्ति मिटाकर नूतन शक्ति , उत्साह पाया ।
विषद काल में धैर्य धारण किये रहना , ऐश्वर्य के समय विनम्र और क्षमाशील बने रहना ,
सभा मंडपों में प्रखर वक्तृत्व देना , सुयश में अभिरुचि रखना और शास्त्रों के स्वाध्याय में प्रमाद न करना आदि सद्गुणों से तो उन्होंने अपने आपको विभूषित किया था । इनसे भी बड़ी थी उनकी आन्तरिक निर्मलता , उदार ह्रद्यता, दृढ़ नैतिक आस्था , गहन अन्तद्रष्टि और सबके लिए सहज आत्मीयता रखने की आध्यात्मिक विभूतियाँ जिनके कारण उनका व्यक्तित्व महान बनता गया । '
वे सच्चे नेता थे । धुआंधार भाषणों , टीका - टिपण्णी और विरोधियों की निन्दा करना कभी उनकी नीति नहीं रही । वे बोलते थे तो ऐसा बोलते थे कि श्रोता मन्त्र मुग्ध हो सुना करते थे । देश के हर नागरिक को उन्होंने अपना आत्मीय स्वजन समझा । उनके पास जो भी गया , अपनी जैसी भी समस्या लेकर गया , पन्त जी ने उसका हल अवश्य किया ।
1934 की बात है ---- एक सज्जन हरिकृष्ण त्रिवेदी , सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लेने के कारण कुछ समय की जेल काटने के बाद उनके पास पहुंचे । पन्त जी ने उन्हें बड़ा स्नेह दिया , आन्दोलन में भाग लेने की प्रशंसा भी की । फिर यह पूछने पर कि अब क्या करने का विचार है ?
वे सज्जन बोले ---- बेकारों का एक संगठन ब पर उन्हें सीख अवश्य मिल गई नाने का विचार है ।
इस पर पन्त जी उन्हें फटकारने से पीछे नहीं रहे और कहा ----- " क्या मूर्खों की जमात में अपना नाम लिखाओगे ? जिनके पास बुद्धि होती है वे बेकार नहीं रहते । "
फटकारने के तुरन्त बाद ही उन्होंने सहायता देने का प्रस्ताव भी रखा --- " अल्मोड़ा जिले के उद्दोग धन्धों की स्थिति का अध्ययन कर कोई योजना बना लाओ तब आगे की बात बताऊंगा । "
योजना तो उन महाशय ने नहीं बनायीं पर उन्हें सीख मिल गई और वे समाचार पात्र के सम्पादकीय विभाग में काम करने लगे ।
उनका व्यक्तित्व एक ऐसा सघन तरु था जिसके नीचे कितने ही थकित पथिकों ने कुछ क्षण को विश्राम कर , अपनी क्लान्ति मिटाकर नूतन शक्ति , उत्साह पाया ।
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