डॉ. हैनीमैन का जीवन समाज को कर्मयोग का शिक्षण देता है । हैनीमैन ऐलोपैथी के डॉक्टर बन कर जर्मनी आये और वहां एक सरकारी अस्पताल में सिविल सर्जन हो गए । उनके दो पुत्र थे , दोनों एक - दो दिन के अन्तर से बीमार पड़े । हैनीमैन स्वयं बड़े डॉक्टर थे इसलिए बच्चों की चिकित्सा उन्होंने स्वयं की अच्छी से अच्छी औषधि दी गई , लेकिन ईश्वरीय सत्ता के आगे मनुष्य का वश नहीं चलता । दोनों पुत्र एक साथ एक ही सांझ मृत्यु के मुख में चले गए । उन्होंने ईश्वरीय इच्छा को प्रणाम किया लेकिन अब उन्हें भौतिक ज्ञान से अविश्वास हो गया ।
दुःख में मनुष्य की ईश्वरीय आस्थाएं तीव्र हो जाती हैं , वे सोचने लगे -- सुख - दुःख क्या है ? उसका मनुष्य से क्या सम्बन्ध है ? ऐसे तथ्यों को सुलझाने के लिए विशेष शोध की , ज्ञान की आवश्यकता थी । अत: उन्होंने सम्मानित डॉक्टर का पद त्याग दिया और ज्ञान का लाभ उठाने के लिए एक सरकारी लाइब्रेरी में लाइब्रेरियन हो गए । अभी तक वे फ्रेंच , अंग्रेजी और जर्मन जानते थे दिन - रात एक करके हैनीमैन ने दुनिया की 9 भाषाएँ और सीखीं और यह सिद्ध कर दिया कि मनुष्य के परिश्रम के आगे संसार की कोई भी वस्तु असंभव नहीं है l
अपनी इस साधना में उन्होंने यह अनुभव किया कि संसार के सब शरीरों में एक ही तरह की चेतना काम करती है , वह मन की शक्ति से भिन्न है । उन्होंने यह अवश्य जान लिया कि मन एक ऐसी शक्ति है जो आत्मा का उपयोग करती है । पागल का मन काम नहीं करता पर आत्मा काम करती है l आत्मा शब्द विद्दुत जैसी कोई शक्ति है जिसमे छल , कपट , भेदभाव आदि विकार नहीं होते क्योंकि पागल मनुष्य में हो चूका है गुण या विकृति नहीं है , मन के दोष से रोग उत्पन्न होता है , मन के विकार से ही शरीर में विकार उत्पन्न होते हैं । अपनी इस धारणा की पुष्टि के लिए उन्होंने भारतीय आयुर्वेद पढना प्रारम्भ किया ।
आज होम्योपैथी का विस्तार सारे संसार में हो गया है । उन्होंने कहा कि दवा देने से पूर्व मनुष्य को अपने आचरण और मनोभावों को सुधर की शिक्षा दी जानी चाहिए
दुःख में मनुष्य की ईश्वरीय आस्थाएं तीव्र हो जाती हैं , वे सोचने लगे -- सुख - दुःख क्या है ? उसका मनुष्य से क्या सम्बन्ध है ? ऐसे तथ्यों को सुलझाने के लिए विशेष शोध की , ज्ञान की आवश्यकता थी । अत: उन्होंने सम्मानित डॉक्टर का पद त्याग दिया और ज्ञान का लाभ उठाने के लिए एक सरकारी लाइब्रेरी में लाइब्रेरियन हो गए । अभी तक वे फ्रेंच , अंग्रेजी और जर्मन जानते थे दिन - रात एक करके हैनीमैन ने दुनिया की 9 भाषाएँ और सीखीं और यह सिद्ध कर दिया कि मनुष्य के परिश्रम के आगे संसार की कोई भी वस्तु असंभव नहीं है l
अपनी इस साधना में उन्होंने यह अनुभव किया कि संसार के सब शरीरों में एक ही तरह की चेतना काम करती है , वह मन की शक्ति से भिन्न है । उन्होंने यह अवश्य जान लिया कि मन एक ऐसी शक्ति है जो आत्मा का उपयोग करती है । पागल का मन काम नहीं करता पर आत्मा काम करती है l आत्मा शब्द विद्दुत जैसी कोई शक्ति है जिसमे छल , कपट , भेदभाव आदि विकार नहीं होते क्योंकि पागल मनुष्य में हो चूका है गुण या विकृति नहीं है , मन के दोष से रोग उत्पन्न होता है , मन के विकार से ही शरीर में विकार उत्पन्न होते हैं । अपनी इस धारणा की पुष्टि के लिए उन्होंने भारतीय आयुर्वेद पढना प्रारम्भ किया ।
आज होम्योपैथी का विस्तार सारे संसार में हो गया है । उन्होंने कहा कि दवा देने से पूर्व मनुष्य को अपने आचरण और मनोभावों को सुधर की शिक्षा दी जानी चाहिए
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