' जनकल्याण के लिए परशुरामजी ज्ञान और विग्रह दोनों को ही आवश्यक मानते थे | ' उनका मत था कि शान्ति की स्थापना के लिए प्रयुक्त हुई अशान्ति सराहनीय है और अहिंसा की परिस्थितियां उत्पन्न करने के लिए की गई हिंसा में पाप नहीं माना जाता ।
स्वार्थ की पूर्ति और अन्याय के लिए आक्रमण करना निन्दनीय है , वर्जित है । लेकिन आत्म रक्षा के लिए , अनाचार की रोकथाम के लिए प्रतिरोधात्मक उपाय के समय हिंसा अपनानी पड़े तो इसे न तो अनुचित माना जाता है और न हेय ।
जन सहयोग से उन्होंने अत्याचारियों के विनाश में आशाजनक सफलता पाई । उनका कहना था कि व्यक्तियों के पास कितनी बड़ी शक्ति क्यों न हो , जनता की संगठित सामर्थ्य से वह कम ही रहती है l
स्वार्थ की पूर्ति और अन्याय के लिए आक्रमण करना निन्दनीय है , वर्जित है । लेकिन आत्म रक्षा के लिए , अनाचार की रोकथाम के लिए प्रतिरोधात्मक उपाय के समय हिंसा अपनानी पड़े तो इसे न तो अनुचित माना जाता है और न हेय ।
जन सहयोग से उन्होंने अत्याचारियों के विनाश में आशाजनक सफलता पाई । उनका कहना था कि व्यक्तियों के पास कितनी बड़ी शक्ति क्यों न हो , जनता की संगठित सामर्थ्य से वह कम ही रहती है l
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