पं. मदनमोहन मालवीय सनातन धर्म के साकार रूप थे । उनका कथन था ----- " धर्म वह शक्तिशाली तत्व है जिसको अपनाने से बड़े से बड़े पतित ह्रदय का अनुराग भी महामना बन सकता है । मुझे अपने धर्म पर अनन्त श्रद्धा है । धर्म मेरा जीवन और प्राण है । "
पं. मदनमोहन मालवीय एक पूर्ण धार्मिक व्यक्ति थे किन्तु उनकी धार्मिक भावना में द्वेष नहीं था , प्रेम की प्रधानता थी । वे पोंगापंथी धार्मिक नहीं थे , उनके धर्म में सत्य और संयम का समन्वय रहता था ।
किसी गरीब को देखकर उनका ह्रदय करुणा से भर जाता था और वे उसकी यथा संभव सहायता किया करते थे । महामना का मानवता मय व्यक्तित्व धर्म की उदात्त पृष्ठभूमि पर विकसित हुआ था । नित्य प्रति की पूजा- पाठ करना मालवीयजी की दिनचर्या का एक विशेष अंग था l जब तक वे नियमित रूप से पूजा न कर लेते थे जीवन के नए दिन का कोई कार्य प्रारम्भ नहीं करते थे किन्तु मानवता की सेवा करना वे व्यक्तिगत पूजा - उपासना से भी अधिक बड़ा धर्म समझते थे l
इसका प्रमाण उन्होंने उस समय दिया जबकि एक बार प्रयाग में प्लेग फैला , नर - नारी कीड़े - मकोड़े की तरह मरने लगे | मित्र , पड़ौसी, सगे - सम्बन्धी तक एक - दूसरे को असहाय अवस्था में छोड़कर भागने लगे थे | किन्तु मानवता के सच्चे पुजारी श्री महामना ही थे जिन्होंने उस कठिन समय में अपने जीवन के सारे प्राण प्रिय कार्यक्रम और कर्मकाण्ड छोड़कर मानवता की सेवा में अपने जीवन को दांव पर लगा दिया | वे घर - घर , गली - गली दवाओं और स्वयंसेवकों को लिए हुए दिन - रात घूमते रहते थे , रोगियों के घर जाते , उन्हें दवा देते , सेवा करते , उनके मल - मूत्र साफ करते और अपने हाथों से उनके निवास स्थान और कपड़ों को धोते थे | अपने इस सेवा कार्य में वे नहाना - धोना , पूजा - पाठ, खाना - पीना सब कुछ भूल गए |
मालवीय जी स्वयंसेवकों से अन्य काम तो लेते थे किन्तु उन्हें रोगियों के पास नहीं जाने देते थे और स्वयं ही रोगियों का मलमूत्र साफ करते थे | जब स्वयंसेवक इस सम्बन्ध में कुछ कहते तो मालवीयजी का उत्तर होता कि----- मैं अपने सेवा कार्य में किसी का साझा नहीं करना चाहता और मेरे ह्रदय में इस त्रस्त मानवता के लिए इतनी तीव्र आग जल रही है कि मेरे पास इस रोग के कीटाणु आकर स्वयं भस्म हो जायेंगे और यदि इनकी सेवा करता हुआ मैं स्वयं मर जाऊं तो भी अपने मानव जीवन को धन्य समझूंगा |
ऐसी थी उनकी सेवा भावना जिसके लिए वे अपना तन - मन - धन सब कुछ न्योछावर करते रहते थे | उनके धर्म का ध्येय मोक्ष अथवा निर्वाण न होकर मानवता की सेवा मात्र था |
पं. मदनमोहन मालवीय एक पूर्ण धार्मिक व्यक्ति थे किन्तु उनकी धार्मिक भावना में द्वेष नहीं था , प्रेम की प्रधानता थी । वे पोंगापंथी धार्मिक नहीं थे , उनके धर्म में सत्य और संयम का समन्वय रहता था ।
किसी गरीब को देखकर उनका ह्रदय करुणा से भर जाता था और वे उसकी यथा संभव सहायता किया करते थे । महामना का मानवता मय व्यक्तित्व धर्म की उदात्त पृष्ठभूमि पर विकसित हुआ था । नित्य प्रति की पूजा- पाठ करना मालवीयजी की दिनचर्या का एक विशेष अंग था l जब तक वे नियमित रूप से पूजा न कर लेते थे जीवन के नए दिन का कोई कार्य प्रारम्भ नहीं करते थे किन्तु मानवता की सेवा करना वे व्यक्तिगत पूजा - उपासना से भी अधिक बड़ा धर्म समझते थे l
इसका प्रमाण उन्होंने उस समय दिया जबकि एक बार प्रयाग में प्लेग फैला , नर - नारी कीड़े - मकोड़े की तरह मरने लगे | मित्र , पड़ौसी, सगे - सम्बन्धी तक एक - दूसरे को असहाय अवस्था में छोड़कर भागने लगे थे | किन्तु मानवता के सच्चे पुजारी श्री महामना ही थे जिन्होंने उस कठिन समय में अपने जीवन के सारे प्राण प्रिय कार्यक्रम और कर्मकाण्ड छोड़कर मानवता की सेवा में अपने जीवन को दांव पर लगा दिया | वे घर - घर , गली - गली दवाओं और स्वयंसेवकों को लिए हुए दिन - रात घूमते रहते थे , रोगियों के घर जाते , उन्हें दवा देते , सेवा करते , उनके मल - मूत्र साफ करते और अपने हाथों से उनके निवास स्थान और कपड़ों को धोते थे | अपने इस सेवा कार्य में वे नहाना - धोना , पूजा - पाठ, खाना - पीना सब कुछ भूल गए |
मालवीय जी स्वयंसेवकों से अन्य काम तो लेते थे किन्तु उन्हें रोगियों के पास नहीं जाने देते थे और स्वयं ही रोगियों का मलमूत्र साफ करते थे | जब स्वयंसेवक इस सम्बन्ध में कुछ कहते तो मालवीयजी का उत्तर होता कि----- मैं अपने सेवा कार्य में किसी का साझा नहीं करना चाहता और मेरे ह्रदय में इस त्रस्त मानवता के लिए इतनी तीव्र आग जल रही है कि मेरे पास इस रोग के कीटाणु आकर स्वयं भस्म हो जायेंगे और यदि इनकी सेवा करता हुआ मैं स्वयं मर जाऊं तो भी अपने मानव जीवन को धन्य समझूंगा |
ऐसी थी उनकी सेवा भावना जिसके लिए वे अपना तन - मन - धन सब कुछ न्योछावर करते रहते थे | उनके धर्म का ध्येय मोक्ष अथवा निर्वाण न होकर मानवता की सेवा मात्र था |
No comments:
Post a Comment