जिसका आचरण शुद्ध , चरित्र उज्जवल और मन्तव्य नि:स्वार्थ है उसके विचार तेजस्वी होंगे ही , जिन्हें क्या साधारण और क्या असाधारण कोई भी व्यक्ति स्वीकार करने के लिए सदैव तत्पर रहेगा
गुप्त वंश के सबसे यशस्वी सम्राट समुद्रगुप्त ने लुप्त होती महान वैदिक परम्पराओं की पुनर्स्थापना की , उनमे से एक अश्वमेध यज्ञ भी था l इसके आयोजन में उसका उद्देश्य यश व विजय नहीं था l समुद्रगुप्त का उद्देश्य था ---- भारत में फैले हुए अनेक छोटे - छोटे राज्यों को एक सूत्र में बांधकर एक छत्र कर देना था , जिससे भारत एक अजेय शक्ति बन जाये l
इस दिग्विजय में समुद्रगुप्त ने केवल उन्ही राजाओं का राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिया , जिन्होंने बहुत समझाने पर भी समुद्रगुप्त के राष्ट्रीय उद्देश्य के प्रति विरोध प्रदर्शित किया l अन्यथा उसने अधिकतर राजाओं को रणभूमि तथा न्याय व्यवस्था के आधार पर ही एकछत्र किया था l अपने विजय अभियान में सम्राट समुद्रगुप्त ने न तो किसी राजा का अपमान किया और न ही उसकी प्रजा को कोई कष्ट दिया । l क्योंकि वह जानता था --- शक्ति - बल पर किया हुआ संगठन क्षणिक एवं अस्थिर होता है l शक्ति तथा दण्ड के भय से लोग संगठन में शामिल हो तो जाते हैं किन्तु सच्ची सहानुभूति न होने से उनका ह्रदय विद्रोह से भरा ही रहता है और समय पाकर वह विघटन के रूप में प्रस्फुटित होकर शुभ कार्य में अमंगल उत्प्न कर देता है l
सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने प्रयास बल पर सैकड़ों भागों में विभक्त भारत - भूमि को एक छत्र करके वैदिक रीति से अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया जो बिना किसी विध्न के पूर्ण हुआ ।
यह समुद्रगुप्त के संयम पूर्ण चरित्र का ही बल था कि इतने विशाल साम्राज्य का एकछत्र स्वामी होने पर भी उसका ध्यान भोग - विलास की ओर जाने के बजाय प्रजा के कल्याण की ओर गया ।
गुप्त वंश के सबसे यशस्वी सम्राट समुद्रगुप्त ने लुप्त होती महान वैदिक परम्पराओं की पुनर्स्थापना की , उनमे से एक अश्वमेध यज्ञ भी था l इसके आयोजन में उसका उद्देश्य यश व विजय नहीं था l समुद्रगुप्त का उद्देश्य था ---- भारत में फैले हुए अनेक छोटे - छोटे राज्यों को एक सूत्र में बांधकर एक छत्र कर देना था , जिससे भारत एक अजेय शक्ति बन जाये l
इस दिग्विजय में समुद्रगुप्त ने केवल उन्ही राजाओं का राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिया , जिन्होंने बहुत समझाने पर भी समुद्रगुप्त के राष्ट्रीय उद्देश्य के प्रति विरोध प्रदर्शित किया l अन्यथा उसने अधिकतर राजाओं को रणभूमि तथा न्याय व्यवस्था के आधार पर ही एकछत्र किया था l अपने विजय अभियान में सम्राट समुद्रगुप्त ने न तो किसी राजा का अपमान किया और न ही उसकी प्रजा को कोई कष्ट दिया । l क्योंकि वह जानता था --- शक्ति - बल पर किया हुआ संगठन क्षणिक एवं अस्थिर होता है l शक्ति तथा दण्ड के भय से लोग संगठन में शामिल हो तो जाते हैं किन्तु सच्ची सहानुभूति न होने से उनका ह्रदय विद्रोह से भरा ही रहता है और समय पाकर वह विघटन के रूप में प्रस्फुटित होकर शुभ कार्य में अमंगल उत्प्न कर देता है l
सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने प्रयास बल पर सैकड़ों भागों में विभक्त भारत - भूमि को एक छत्र करके वैदिक रीति से अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया जो बिना किसी विध्न के पूर्ण हुआ ।
यह समुद्रगुप्त के संयम पूर्ण चरित्र का ही बल था कि इतने विशाल साम्राज्य का एकछत्र स्वामी होने पर भी उसका ध्यान भोग - विलास की ओर जाने के बजाय प्रजा के कल्याण की ओर गया ।
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