' संसार में किसी महान कार्य में सफलता प्राप्त करना सहज नहीं होता | जब तक मनुष्य उसे सिद्ध करने के लिए अपना सर्वस्व समर्पण करने को तैयार नहीं होता तब तक सिद्धि की आशा निरर्थक है कोलम्बस ( 1449 - 1506 ) का उद्देश्य संसार कोई ऐसा काम करके दिखाना था जिससे लोक कल्याण साधित हो और आगामी पीढियाँ भी जिससे लाभ उठाती रहें | कोलम्बस का दृढ संकल्प था , उसने अपने प्राणों की बाजी लगाकर नई दुनिया का मार्ग खोला और मानव जाति की प्रगति का एक बहुत बड़ा साधन उत्पन्न कर दिया |
' धर्मजीवी ' लोग सदा से और सब देशों में मानव - प्रगति में अड़ंगा लगाते रहे हैं | उनका निर्वाह सदा से लोगों के अन्धविश्वास और पुरानी लकीर को पीटते रहने पर ही होता आया है इसलिए उनको किसी प्रकार की नवीन जाग्रति का प्रचार बुरा जान पड़ता है | ऐसे ' धर्म जीवियों ' की सदा यही इच्छा रही है कि लोग पूर्ववत ' कूपमंडूक ' बने रहें और केवल पूजा - पाठ पर बैठे - बैठे उनका उदर पोषण करते रहें |
ऐसे ही धार्मिक व्यक्तियों के भीषण विरोध का सामना कोलम्बस को करना पड़ा | ' धार्मिक ' व्यक्तियों की एक निर्णायक समिति में भाषण देते हुए कोलम्बस ने कहा ---- " मैं जनता हूँ कि मैं उस दैवी सत्ता का क्षुद्र साधन हूँ जो हम सबका मार्ग दर्शन करती है | मैं जहाज चलाते समय केवल कुतुबनुमा को ही अपना मार्गदर्शक नहीं मानता , वरन प्रभु के प्रति आस्था से प्राप्त स्पष्ट प्रकाश ही मेरा मार्ग दर्शन करता है | " कोलम्बस ने जैसे ही अंतिम शब्द कहा की गिरजाघर में पूजा और प्रार्थना की घंटियाँ घनघनाने लगीं | यह एक प्रकार से उनके कथन की सत्यता का दैवी चिन्ह था | किन्तु उन धर्मान्ध लोगों ने कोलमबस को जालसाज कहा |
कोलमबस को अपने ध्येय में पूर्ण निष्ठां थी और उसके ह्रदय में ज्ञान की सच्ची प्यास थी , इसलिए उसने इस सामयिक असफलता के सामने सर न झुकाया l उसने निश्चय कर लिया कि एक बार वह सम्राट व सम्राज्ञी से भेंट करके ही स्पेन छोड़ेगा |
अनेक बाधाओं को पार करते हुए कोलम्बस अपने लक्ष्य NDRTके निकट जा पहुंचा , साम्राज्ञी ने अपना मोतियों का हार कोषाध्यक्ष को दे दिया कि इससे धन प्राप्त करके कोलम्बस की यात्रा का सब प्रबंध किया जाये l
कोलम्बस ने अपनी समस्त शक्तियों को केवल नई दुनिया की खोज के लिए केन्द्रित कर दिया\ तो अंत में उसे सफलता प्राप्त हुई
' धर्मजीवी ' लोग सदा से और सब देशों में मानव - प्रगति में अड़ंगा लगाते रहे हैं | उनका निर्वाह सदा से लोगों के अन्धविश्वास और पुरानी लकीर को पीटते रहने पर ही होता आया है इसलिए उनको किसी प्रकार की नवीन जाग्रति का प्रचार बुरा जान पड़ता है | ऐसे ' धर्म जीवियों ' की सदा यही इच्छा रही है कि लोग पूर्ववत ' कूपमंडूक ' बने रहें और केवल पूजा - पाठ पर बैठे - बैठे उनका उदर पोषण करते रहें |
ऐसे ही धार्मिक व्यक्तियों के भीषण विरोध का सामना कोलम्बस को करना पड़ा | ' धार्मिक ' व्यक्तियों की एक निर्णायक समिति में भाषण देते हुए कोलम्बस ने कहा ---- " मैं जनता हूँ कि मैं उस दैवी सत्ता का क्षुद्र साधन हूँ जो हम सबका मार्ग दर्शन करती है | मैं जहाज चलाते समय केवल कुतुबनुमा को ही अपना मार्गदर्शक नहीं मानता , वरन प्रभु के प्रति आस्था से प्राप्त स्पष्ट प्रकाश ही मेरा मार्ग दर्शन करता है | " कोलम्बस ने जैसे ही अंतिम शब्द कहा की गिरजाघर में पूजा और प्रार्थना की घंटियाँ घनघनाने लगीं | यह एक प्रकार से उनके कथन की सत्यता का दैवी चिन्ह था | किन्तु उन धर्मान्ध लोगों ने कोलमबस को जालसाज कहा |
कोलमबस को अपने ध्येय में पूर्ण निष्ठां थी और उसके ह्रदय में ज्ञान की सच्ची प्यास थी , इसलिए उसने इस सामयिक असफलता के सामने सर न झुकाया l उसने निश्चय कर लिया कि एक बार वह सम्राट व सम्राज्ञी से भेंट करके ही स्पेन छोड़ेगा |
अनेक बाधाओं को पार करते हुए कोलम्बस अपने लक्ष्य NDRTके निकट जा पहुंचा , साम्राज्ञी ने अपना मोतियों का हार कोषाध्यक्ष को दे दिया कि इससे धन प्राप्त करके कोलम्बस की यात्रा का सब प्रबंध किया जाये l
कोलम्बस ने अपनी समस्त शक्तियों को केवल नई दुनिया की खोज के लिए केन्द्रित कर दिया\ तो अंत में उसे सफलता प्राप्त हुई
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