कहते हैं विधाता के पास प्रत्येक मनुष्य के दो घड़े होते हैं ---- एक पाप का घड़ा और एक पुण्य का घड़ा l
कोई व्यक्ति पिछले जन्मों में और इस जन्म में श्रेष्ठ कर्म करता है , इससे उसका पुण्य का घड़ा भर जाता है फिर इस पुण्य का भोग करने के लिए उसे मान - सम्मान , पद - प्रतिष्ठा , धन - दौलत सब कुछ मिलता है l यह सब पा कर व्यक्ति अहंकारी हो जाता है , और अधिक सुख - सम्मान पाने की लालसा बढ़ती जाती है l इस लालसा - लोभ व अहंकार में वह ऐसा कुछ कर गुजरता है जो पाप कर्म हो जाता है l एक ओर पुण्य के फलस्वरूप मिलने वाला सुख भोगने से पुण्य का घड़ा खाली होता जाता है तो दूसरी ओर लालच और अहंकार के कारण दूसरों को पीड़ित करने , अत्याचार व अनीति करने से पाप का घड़ा भरने लगता है l जब पाप का घड़ा भर जाता है तो उसका भोग भोगने के लिए पीड़ा , कष्ट - कठिनाइयों का समय शुरू हो जाता है l इस तरह उत्थान - पतन , सुख - दुःख का यह चक्र चलता रहता है l
जो जागरूक होते हैं , पाप और पुण्य की गहराई को समझते हैं , वे कभी अहंकार नहीं करते अपनी शक्ति , अपनी धन - संपदा का सदुपयोग करते हैं , दुःखी और पीड़ित व्यक्ति की पीड़ा निवारण के कार्य करते हैं l ऐसा करने वाले व्यक्तियों का उत्थान के बाद पतन नहीं होता क्योंकि पुण्यों के फलस्वरूप जो सुख वैभव मिला , उसका उपयोग करने से जो पुण्य खर्च हो जाते हैं अथवा पुण्य का घड़ा खाली होता है , वह शक्ति और संपदा के सदुपयोग से पुन: भरता जाता है l
अब ये मनुष्य का विवेक है , ईश्वर ने उसे चयन की स्वतंत्रता दी है ---- सफलता की ऊँचाइयों पर बने रहना पसंद है या धड़ाम से नीचे गिरना पसंद है l प्रकृति में क्षमा का प्रावधान नहीं होता l
कोई व्यक्ति पिछले जन्मों में और इस जन्म में श्रेष्ठ कर्म करता है , इससे उसका पुण्य का घड़ा भर जाता है फिर इस पुण्य का भोग करने के लिए उसे मान - सम्मान , पद - प्रतिष्ठा , धन - दौलत सब कुछ मिलता है l यह सब पा कर व्यक्ति अहंकारी हो जाता है , और अधिक सुख - सम्मान पाने की लालसा बढ़ती जाती है l इस लालसा - लोभ व अहंकार में वह ऐसा कुछ कर गुजरता है जो पाप कर्म हो जाता है l एक ओर पुण्य के फलस्वरूप मिलने वाला सुख भोगने से पुण्य का घड़ा खाली होता जाता है तो दूसरी ओर लालच और अहंकार के कारण दूसरों को पीड़ित करने , अत्याचार व अनीति करने से पाप का घड़ा भरने लगता है l जब पाप का घड़ा भर जाता है तो उसका भोग भोगने के लिए पीड़ा , कष्ट - कठिनाइयों का समय शुरू हो जाता है l इस तरह उत्थान - पतन , सुख - दुःख का यह चक्र चलता रहता है l
जो जागरूक होते हैं , पाप और पुण्य की गहराई को समझते हैं , वे कभी अहंकार नहीं करते अपनी शक्ति , अपनी धन - संपदा का सदुपयोग करते हैं , दुःखी और पीड़ित व्यक्ति की पीड़ा निवारण के कार्य करते हैं l ऐसा करने वाले व्यक्तियों का उत्थान के बाद पतन नहीं होता क्योंकि पुण्यों के फलस्वरूप जो सुख वैभव मिला , उसका उपयोग करने से जो पुण्य खर्च हो जाते हैं अथवा पुण्य का घड़ा खाली होता है , वह शक्ति और संपदा के सदुपयोग से पुन: भरता जाता है l
अब ये मनुष्य का विवेक है , ईश्वर ने उसे चयन की स्वतंत्रता दी है ---- सफलता की ऊँचाइयों पर बने रहना पसंद है या धड़ाम से नीचे गिरना पसंद है l प्रकृति में क्षमा का प्रावधान नहीं होता l
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