महर्षि दयानन्द फर्रुखाबाद में रुके हुए थे ल एक व्यक्ति दाल- चावल बना कर लाया I वह गृहस्थ था और मजदूरी कर के परिवार का पालन - पोषण करता था I स्वामीजी ने उसके हाथ का अन्न जो वह बड़ी श्रद्धा से लाया था , ग्रहण किया I ब्राह्मणों को बुरा लगा l वे बोले आप संन्यस्त हैं I इस हीन कुल के व्यक्ति के हाथ का भोजन लेकर आप भ्रष्ट हो गए l स्वामीजी बोले ---- " कैसे , क्या अन्न दूषित था ? " ब्राह्मण बोले --- " हाँ , आपको लेना नहीं चाहिए था I "
स्वामीजी बोले ----- " अन्न दो प्रकार से दूषित होता है -- एक तो वह जो दूसरों को कष्ट देकर शोषण द्वारा प्राप्त किया जाता है इ और दूसरा वह , जहाँ कोई अभक्ष्य पदार्थ उसमे गिर जाता है इस व्यक्ति का अन्न तो दोनों ही श्रेणी में नहीं आता ल इसका अन्न परिश्रम की कमाई का है , फिर दूषित कैसे हुआ , मैं भ्रष्ट कैसे हो गया ? आप सबका मन मलिन है , इसी से आप दूसरों की की चीजें मलिन मानते हैं I मैं जाति जन्म से नहीं , कर्म से मानता हूँ I भेदभाव त्याग कर सबके लिए जीना सीखना चाहिए I
स्वामीजी बोले ----- " अन्न दो प्रकार से दूषित होता है -- एक तो वह जो दूसरों को कष्ट देकर शोषण द्वारा प्राप्त किया जाता है इ और दूसरा वह , जहाँ कोई अभक्ष्य पदार्थ उसमे गिर जाता है इस व्यक्ति का अन्न तो दोनों ही श्रेणी में नहीं आता ल इसका अन्न परिश्रम की कमाई का है , फिर दूषित कैसे हुआ , मैं भ्रष्ट कैसे हो गया ? आप सबका मन मलिन है , इसी से आप दूसरों की की चीजें मलिन मानते हैं I मैं जाति जन्म से नहीं , कर्म से मानता हूँ I भेदभाव त्याग कर सबके लिए जीना सीखना चाहिए I
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