पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने लिखा है ---- " मन मुख्य है और शरीर गौण l मन की समझदारी से ही शरीर की अस्त व्यस्तता दूर हो सकती है l शरीर के परिपुष्ट होने से मनोविकार दूर नहीं किये जा सकते l शरीर की सामर्थ्य तुच्छ है , मन की महान l मन का शासन शरीर पर ही नहीं , जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर है l "
पुस्तकीय ज्ञान , भाषण , सेमिनार आदि की अपनी उपयोगिता है लेकिन यह बहिरंग की शिक्षा है , इससे मन की शक्ति को नहीं बढाया जा सकता l भगवान गीता में कहते हैं कि अपने मनोबल को बढ़ाने के लिए मनुष्य को स्वयं ही प्रयास करना होगा l अपनी आदतों , कामना , वासना , ईर्ष्या , द्वेष आदि विकार , जो मनुष्य को पतन की और ले जाते हैं , इन्ही विकारों से स्वयं को बचाना होगा l
जिनका भोगवादी चिंतन हैं वे कहते हैं ---- परिस्थितियां ठीक कर दो , मन स्वत: ही ठीक हो जायेगा l यदि ऐसा होता तो वे देश जहाँ सारी भौतिक सुख सुविधाएँ हैं , अनुकूल वातावरण है , स्वच्छता है , वहां लोगों का मन इतना अशांत क्यों है ? इतने मनोरोग , डिप्रेशन के रोगी क्यों बढ़ रहे हैं ? चाहे कितने भी अनुकूल साधन हमें जुटाकर दे दो , लेकिन यदि हमारी मन: स्थिति कमजोर है तो इनसे कुछ भी लाभ न होगा l ये सब सुख सुविधाएँ कमजोर मन: स्थिति के लोगों को अपयश और वासनात्मक जीवन की और धकेल देंगी l
हमारा मन ही हमारा मित्र है , अपने आपको नीचे नहीं गिरने देना चाहिए l
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