महर्षि आश्वलायन अपने शिष्यों को संस्कृति और संस्कार से परिचित कराते थे , जीवन के मूलभूत सिद्धांत से लेकर अध्यात्म की शिक्षा देते थे l लेकिन आज उनके माथे पर चिंता की लकीरें थीं l निकट राज्य के सेनापति ने बताया कि उनका शिष्य देवदत्त दस्यु बन गया l महर्षि ने सेनापति से कहा की तुरंत देवदत्त के पास चलो l सेनापति को भय और संकोच था क्योंकि वह दस्यु कितने ही निरपराध लोगों की हत्या कर चुका था l
महर्षि ने सेनापति से कहा --- " वत्स ! गुरु का दायित्व ही अंधकार से प्रकाश की और ले जाना होता है l यदि आज मैं अपने दायित्व से विमुख हो जाऊँगा तो आने वाली पीढ़ी को सत्य और धर्माचरण की शिक्षा कैसे दूंगा l यदि मेरी दी गई शिक्षाओं में , मेरे आचरण में सत्य और धर्म का समावेश है तो मैं और तुम दोनों सुरक्षित लौटेंगे और यदि मेरी दी गई शिक्षाएं दुराचरण पर आधारित हैं तो हमारा नष्ट हो जाना ही श्रेष्ठ है l "
चलते - चलते महर्षि व सेनापति उस जंगल में पहुंचे , महर्षि अब दस्यु देवदत्त के सामने खड़े थे , उसके हाथ में रक्तरंजित तलवार थी l विषाक्त वातावरण में रहने के कारण वह तो महर्षि को भूल ही गया था l महर्षि ने उससे प्रेम से पूछा --- " कैसे हो पुत्र देवदत्त ! क्या घर की याद नहीं आती ? " इतने वर्षों में किसी ने पहली बार उससे प्रेम से बोला l महर्षि से आँख मिलते ही उसकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी , वह उनके चरणों में गिर पड़ा l महर्षि ने उसके मस्तक पर हाथ फेरते हुए कहा --- "पुत्र देवदत्त ! मेरी शिक्षाओं में क्या कमी थी जो हमारी - तुम्हारी भेंट इस मोड़ पर हुई , तुम्हारे हाथ निर्दोषों के रक्त से रंगे हैं l जीवन तुम्हे यहाँ कैसे ले आया , पुत्र ! "
देवदत्त ने कहा --- " गुरुदेव ! कमी आपकी शिक्षाओं में नहीं थी l मेरे पिता राज्य के मंत्री थे , उनकी प्रवृति दूषित थी l गुरुकुल से लौटने के उपरांत मैंने प्राप्त शिक्षाओं के अनुसरण का भरसक प्रयत्न किया l किन्तु परिवार में व्याप्त कलुषित चिंतन ने मुझे इस पथ पर ला पटका l आज आपके प्रेम ने मुझे वे सब शिक्षाएं याद दिला दीं l मुझे क्षमा करें गुरुवर ! "
महर्षि बोले --- ' भूल तो अनुशय से होती ही हैं , परन्तु सच्चा गौरव उनका सही प्रायश्चित करने में है , उन पर ग्लानि करने में नहीं l यदि तुम क्षमा चाहते हो तो उन निर्दोषों के घरों को पुन: नवजीवन दो , जो तुमने अज्ञानवश नष्ट किये हैं l हर उस पीड़ित व्यक्ति से निकलते क्षमा के स्वर तुम्हारे जीवन को स्वत: ही सुगंध से भर देंगे l l "
देवदत्त को महर्षि का कथन समझ में आ गया था l यह अधर्म पर धर्म की विजय थी l
महर्षि ने सेनापति से कहा --- " वत्स ! गुरु का दायित्व ही अंधकार से प्रकाश की और ले जाना होता है l यदि आज मैं अपने दायित्व से विमुख हो जाऊँगा तो आने वाली पीढ़ी को सत्य और धर्माचरण की शिक्षा कैसे दूंगा l यदि मेरी दी गई शिक्षाओं में , मेरे आचरण में सत्य और धर्म का समावेश है तो मैं और तुम दोनों सुरक्षित लौटेंगे और यदि मेरी दी गई शिक्षाएं दुराचरण पर आधारित हैं तो हमारा नष्ट हो जाना ही श्रेष्ठ है l "
चलते - चलते महर्षि व सेनापति उस जंगल में पहुंचे , महर्षि अब दस्यु देवदत्त के सामने खड़े थे , उसके हाथ में रक्तरंजित तलवार थी l विषाक्त वातावरण में रहने के कारण वह तो महर्षि को भूल ही गया था l महर्षि ने उससे प्रेम से पूछा --- " कैसे हो पुत्र देवदत्त ! क्या घर की याद नहीं आती ? " इतने वर्षों में किसी ने पहली बार उससे प्रेम से बोला l महर्षि से आँख मिलते ही उसकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी , वह उनके चरणों में गिर पड़ा l महर्षि ने उसके मस्तक पर हाथ फेरते हुए कहा --- "पुत्र देवदत्त ! मेरी शिक्षाओं में क्या कमी थी जो हमारी - तुम्हारी भेंट इस मोड़ पर हुई , तुम्हारे हाथ निर्दोषों के रक्त से रंगे हैं l जीवन तुम्हे यहाँ कैसे ले आया , पुत्र ! "
देवदत्त ने कहा --- " गुरुदेव ! कमी आपकी शिक्षाओं में नहीं थी l मेरे पिता राज्य के मंत्री थे , उनकी प्रवृति दूषित थी l गुरुकुल से लौटने के उपरांत मैंने प्राप्त शिक्षाओं के अनुसरण का भरसक प्रयत्न किया l किन्तु परिवार में व्याप्त कलुषित चिंतन ने मुझे इस पथ पर ला पटका l आज आपके प्रेम ने मुझे वे सब शिक्षाएं याद दिला दीं l मुझे क्षमा करें गुरुवर ! "
महर्षि बोले --- ' भूल तो अनुशय से होती ही हैं , परन्तु सच्चा गौरव उनका सही प्रायश्चित करने में है , उन पर ग्लानि करने में नहीं l यदि तुम क्षमा चाहते हो तो उन निर्दोषों के घरों को पुन: नवजीवन दो , जो तुमने अज्ञानवश नष्ट किये हैं l हर उस पीड़ित व्यक्ति से निकलते क्षमा के स्वर तुम्हारे जीवन को स्वत: ही सुगंध से भर देंगे l l "
देवदत्त को महर्षि का कथन समझ में आ गया था l यह अधर्म पर धर्म की विजय थी l
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