आचार्य जी ने अपने एक लेख में कहा है ----- अकारण दया और क्षमा का नियम बना लिया जाये तो प्रत्येक अपराधी और पापी को मनमाना आचरण करने की छूट मिल जाएगी l वह इस आधार पर गलत रास्ते पर चलता रहेगा कि क्षमा तो मिल ही जाएगी l
प्रकृति में क्षमा का प्रावधान नहीं होता , प्रारब्ध को बदला भी नहीं जा सकता l आचार्यश्री का , ऋषियों आदि का मत है कि -- यदि हम अपने आपको दिव्य प्रयोजनों के लिए समर्पित कर सकें तो भागवत चेतना हमारी नियति अपने हाथ में ले लेती है l इससे पिछले जन्मों में किये गए कर्म केंचुली की तरह उतर जाते हैं l अपने आपको बदलने और विश्व को अधिक सुन्दर , उन्नत , व्यवस्थित बनाने के लिए समर्पण का मन बना लिया जाये तो नियति में बदलाव आने लगता है l तब प्रकृति एक अवसर देती है l
हमारे मन के तार ईश्वर से जुड़े हैं , वे हमारे ह्रदय के हर भाव को समझते हैं इसलिए बदलने या सुधरने का ढोंग कर के अपने लिए क्षमा नहीं बटोरी जा सकती l बाहरी दुनिया में काम करने वाली न्याय व्यवस्था को झांसा देना कितना ही आसान हो , दिव्य प्रकृति में कोई झांसे बाजी नहीं चलती l वहां शुद्ध ईमानदारी ही काम आती है l अहंकार को त्याग कर स्वयं को ईश्वर के हाथों का ' यंत्र ' मान लेने से , सुख और दुःख को ईश्वर की इच्छा समझकर स्वीकार करने से नियति में परिवर्तन संभव है l
प्रकृति में क्षमा का प्रावधान नहीं होता , प्रारब्ध को बदला भी नहीं जा सकता l आचार्यश्री का , ऋषियों आदि का मत है कि -- यदि हम अपने आपको दिव्य प्रयोजनों के लिए समर्पित कर सकें तो भागवत चेतना हमारी नियति अपने हाथ में ले लेती है l इससे पिछले जन्मों में किये गए कर्म केंचुली की तरह उतर जाते हैं l अपने आपको बदलने और विश्व को अधिक सुन्दर , उन्नत , व्यवस्थित बनाने के लिए समर्पण का मन बना लिया जाये तो नियति में बदलाव आने लगता है l तब प्रकृति एक अवसर देती है l
हमारे मन के तार ईश्वर से जुड़े हैं , वे हमारे ह्रदय के हर भाव को समझते हैं इसलिए बदलने या सुधरने का ढोंग कर के अपने लिए क्षमा नहीं बटोरी जा सकती l बाहरी दुनिया में काम करने वाली न्याय व्यवस्था को झांसा देना कितना ही आसान हो , दिव्य प्रकृति में कोई झांसे बाजी नहीं चलती l वहां शुद्ध ईमानदारी ही काम आती है l अहंकार को त्याग कर स्वयं को ईश्वर के हाथों का ' यंत्र ' मान लेने से , सुख और दुःख को ईश्वर की इच्छा समझकर स्वीकार करने से नियति में परिवर्तन संभव है l
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