बात उन दिनों की है जब स्वामी विवेकानंद घूम - घूम कर समूचे देश की स्थिति का अवलोकन कर रहे थे l उन दिनों वे दक्षिण भारत में थे l एक मठ में प्रवेश कर उन्होंने महंत से पूछा -- " क्या मैं यहाँ एक दो दिन रह सकता हूँ l " उनका उद्देश्य वहां की जीवन प्रणाली का अध्ययन करना था l उन्होंने देखा कि कुछ लोग उपनिषद पढ़ रहे हैं l स्वामी विवेकानंद ने उनसे पूछा --- " आप लोग इस ज्ञान को जीवन में उतारने के लिए क्या कर्म करते हैं ? "
वे लोग बोले --- " कर्म ! कर्म से हमारा क्या प्रयोजन ? "
स्वामीजी ---- " शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति आप लोग कैसे करते हैं ? "
साधु ने जवाब दिया --- " अरे ! इतना भी नहीं मालूम , यह काम गृहस्थों का है l वे ही हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं l "
स्वामीजी उस स्थान पर पहुंचे जो साधुओं के निवास के लिए था -- संगमरमर का फर्श , विशाल कमरे , गद्देदार पलंग l यह सब देखकर स्वामीजी ने साधु से पूछा --- " क्यों महात्माजी ! क्या आपने मजदूरों की बस्तियां देखी हैं ? क्या उनके घरों से भिक्षा ली है ? "
साधु बोला --- " वे भला क्या देंगे ? उनके पास खुद नहीं है l "
स्वामीजी---- " क्या आपने कभी उनके दुःख - दारिद्र्य दूर करने के सम्बन्ध में विचार किया ? '
साधु ---- " वे अपने पापों का दंड भुगत रहे हैं l "
स्वामी विवेकानंद विचारमग्न हो गए l क्या यही संन्यास है ? मूढों, , अकर्मण्य और विलासियों का जमावड़ा हो गया है l स्वामीजी का मन परेशान हो गया , वे कन्या कुमारी जा पहुंचे और समुद्र की उत्ताल तरंगों को बेध कर पाषाण शिला पर पहुंचकर ध्यान में डूब गए l
स्वामीजी के शब्दों में यह ध्यान भारत की आत्मा का था l एक नया भारत l संन्यास का नया स्वरुप समझाना होगा , सुशिक्षित , अनुशासित , कर्मठ व्यक्तियों का दल घर - घर , द्वार - द्वार जाकर लोगों को जीवन बोध कराये l कर्मठता जीवन का ध्येय बन जाये , मानव मात्र जागरूक हो और सामाजिक कर्तव्य निभाने में जुट जाये l विराट विश्व की आराधना जो कर सके , ऐसे समय दानी , लोकसेवी , कर्मठ व्यक्ति ही सच्चे संन्यासी हैं l
वे लोग बोले --- " कर्म ! कर्म से हमारा क्या प्रयोजन ? "
स्वामीजी ---- " शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति आप लोग कैसे करते हैं ? "
साधु ने जवाब दिया --- " अरे ! इतना भी नहीं मालूम , यह काम गृहस्थों का है l वे ही हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं l "
स्वामीजी उस स्थान पर पहुंचे जो साधुओं के निवास के लिए था -- संगमरमर का फर्श , विशाल कमरे , गद्देदार पलंग l यह सब देखकर स्वामीजी ने साधु से पूछा --- " क्यों महात्माजी ! क्या आपने मजदूरों की बस्तियां देखी हैं ? क्या उनके घरों से भिक्षा ली है ? "
साधु बोला --- " वे भला क्या देंगे ? उनके पास खुद नहीं है l "
स्वामीजी---- " क्या आपने कभी उनके दुःख - दारिद्र्य दूर करने के सम्बन्ध में विचार किया ? '
साधु ---- " वे अपने पापों का दंड भुगत रहे हैं l "
स्वामी विवेकानंद विचारमग्न हो गए l क्या यही संन्यास है ? मूढों, , अकर्मण्य और विलासियों का जमावड़ा हो गया है l स्वामीजी का मन परेशान हो गया , वे कन्या कुमारी जा पहुंचे और समुद्र की उत्ताल तरंगों को बेध कर पाषाण शिला पर पहुंचकर ध्यान में डूब गए l
स्वामीजी के शब्दों में यह ध्यान भारत की आत्मा का था l एक नया भारत l संन्यास का नया स्वरुप समझाना होगा , सुशिक्षित , अनुशासित , कर्मठ व्यक्तियों का दल घर - घर , द्वार - द्वार जाकर लोगों को जीवन बोध कराये l कर्मठता जीवन का ध्येय बन जाये , मानव मात्र जागरूक हो और सामाजिक कर्तव्य निभाने में जुट जाये l विराट विश्व की आराधना जो कर सके , ऐसे समय दानी , लोकसेवी , कर्मठ व्यक्ति ही सच्चे संन्यासी हैं l
No comments:
Post a Comment