आचार्य जी ने लिखा है कि कामनाएं मनुष्य का स्वभाव ही नहीं आवश्यकता भी है किन्तु प्रयत्नपूर्वक इन्हें नियंत्रित और मर्यादित करना भी जरुरी है , तभी यह जीवन में अपनी पूर्ति के साथ सुख - शांति का अनुभव दे सकती हैं l आचार्यश्री का मत है कि अपनी स्थिति से परे की कामनाएं करना , अपने को एक बड़ा दंड देने के बराबर है क्योंकि अपनी शक्ति से बाहर की गई कामनाएं कभी पूर्ण नहीं होती है और अपूर्ण कामनाएं ह्रदय में कांटे की तरह चुभा करती हैं l
मनुष्य को अपने अनुरूप ., अपने साधनों और शक्तियों के अनुसार कामनाएं करते हुए पूरा पुरुषार्थ उस पर लगा देना चाहिए l
मनुष्य को अपने अनुरूप ., अपने साधनों और शक्तियों के अनुसार कामनाएं करते हुए पूरा पुरुषार्थ उस पर लगा देना चाहिए l
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