अखण्ड ज्योति - जुलाई 1969 में आचार्य जी ने लिखा है -- शुद्ध ह्रदय से कीर्तन - भजन , प्रवचन में भाग लेना प्रभु की स्तुति है , उससे अपने देह , मन और बुद्धि के वह सूक्ष्म संस्थान जागृत होते हैं , जो मनुष्य को सफल , सद्गुणी और दूरदर्शी बनाते हैं l
लेकिन केवल प्रार्थना ही ईश्वर का स्तवन नहीं है l हम कर्म से भी भगवान की उपासना करते हैं l कर्तव्य भावना से किए गए कर्म से तथा परोपकार से भगवान उतना ही प्रसन्न होता है , जितना कीर्तन और भजन से l
आचार्य जी ने आगे लिखा है कि उपासना का अभाव रहने पर भी ईश्वर के अनुशासन में कर्म करने वाला मनुष्य उसे बहुत शीघ्र आत्मसात कर लेता है l लकड़ी काटना , सड़क के पत्थर तोड़ना, मकान की सफाई , सजावट और खलिहान में अन्न निकालना, बर्तन धोना , भोजन पकाना यह भी भगवान की ही स्तुति है , यदि हम यह सारे कर्म इस आशय से करें कि उससे विश्वात्मा का कल्याण हो l नि:स्वार्थ भाव से किए गए कर्म से बढ़कर फलदायक ईश्वर की भक्ति और उपासना पद्धति और कोई दूसरी नहीं हो सकती l
लेकिन केवल प्रार्थना ही ईश्वर का स्तवन नहीं है l हम कर्म से भी भगवान की उपासना करते हैं l कर्तव्य भावना से किए गए कर्म से तथा परोपकार से भगवान उतना ही प्रसन्न होता है , जितना कीर्तन और भजन से l
आचार्य जी ने आगे लिखा है कि उपासना का अभाव रहने पर भी ईश्वर के अनुशासन में कर्म करने वाला मनुष्य उसे बहुत शीघ्र आत्मसात कर लेता है l लकड़ी काटना , सड़क के पत्थर तोड़ना, मकान की सफाई , सजावट और खलिहान में अन्न निकालना, बर्तन धोना , भोजन पकाना यह भी भगवान की ही स्तुति है , यदि हम यह सारे कर्म इस आशय से करें कि उससे विश्वात्मा का कल्याण हो l नि:स्वार्थ भाव से किए गए कर्म से बढ़कर फलदायक ईश्वर की भक्ति और उपासना पद्धति और कोई दूसरी नहीं हो सकती l
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