पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने वाड्मय ' हमारी संस्कृति --- इतिहास के कीर्ति स्तम्भ ' में लिखा है ---- " हिन्दू धर्म आत्मज्ञान का सबसे बड़ा ज्ञाता और प्रचारक माना गया है , पर उसके अनुयायिओं में जितना पार्थक्य , ऊँच - नीच का भाव , छुआछूत और दूसरों को नीच तथा घ्रणित समझने की प्रवृति पाई जाती है , वैसी शायद संसार की किसी दर्जे की अज्ञानी जाति में भी नहीं पाई जा सकती l भारतवर्ष के संत पुरुष जैसे नानक , कबीर , नामदेव , तुकाराम , दादूदयाल , रामकृष्ण परमहंस , स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द आदि ने हिन्दू समाज के इस जाति - पांति रूपी घुन को दूर करने की चेष्टा की l ( आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी जाति - पांति रूपी घुन को समाप्त करने का कोई इलाज नहीं हो पाया l )
आचार्य जी आगे लिखते हैं --- ' वर्तमान समय में हिन्दू समाज की निर्बलता के अनेक कारणों में से एक मुख्य कारण उसकी रूढ़िग्रस्तता भी है l यहाँ का शूद्र और ग्रामीण वर्ग ही नहीं , नगरों में रहने वाले अधिकांश पढ़े - लिखे हिन्दू भी रूढ़ियों को धर्म का एक अंग मानने लगे हैं l यद्दपि उनको यह बात समझायी जाती है कि सभी रूढ़ियाँ समय - समय पर किसी सामयिक आवश्यकता वश आरम्भ की जाती हैं , उनमे समयानुसार परिवर्तन होते रहते हैं l किन्तु यदि उनसे किसी समय के प्रतिकूल रूढ़ि को त्यागने को कहा जाये तो वे कभी उसके लिए तैयार नहीं होते और तुरंत प्रथा व परंपरा की दुहाई देने लगते हैं l उनकी समझ में यह बात आती ही नहीं कि प्रथाएं और परम्पराएँ व्यक्तियों और समाज की सुविधा के लिए हैं न कि उनको बन्धनों में डालने के लिए l जब परिस्थितियों के बदल जाने से कोई प्रथा हानिकारक सिद्ध होने लगती है तो उसको त्यागना या बदल देना ही समझदारों का कर्तव्य है l यद्दपि रूढ़ियाँ न्यूनाधिक मात्रा सर्वत्र हैं किन्तु भारत में विशेषत: हिन्दू समाज में उनका जैसा कुप्रभाव देखने में आता है वैसा अन्यत्र नहीं है l इन लोगों ने सती-प्रथा जैसी क्रूरता और निर्दयतापूर्ण रूढ़ि को भी राजी - खुशी से नहीं छोड़ा l उनके ऊपर जब राज्य का अत्याधिक दबाव पड़ा और उसके लिए दंड दिए जाने का कानून बना दिया गया तब कहीं जाकर उस कुप्रथा छोड़ सके l आज ऐसे विद्वान् और कर्मवीर व्यक्तियों की आवश्यकता है जो जनता को समझा सकने के साथ स्वयं उन सुधारों पर अमल करे l
आचार्य जी आगे लिखते हैं --- ' वर्तमान समय में हिन्दू समाज की निर्बलता के अनेक कारणों में से एक मुख्य कारण उसकी रूढ़िग्रस्तता भी है l यहाँ का शूद्र और ग्रामीण वर्ग ही नहीं , नगरों में रहने वाले अधिकांश पढ़े - लिखे हिन्दू भी रूढ़ियों को धर्म का एक अंग मानने लगे हैं l यद्दपि उनको यह बात समझायी जाती है कि सभी रूढ़ियाँ समय - समय पर किसी सामयिक आवश्यकता वश आरम्भ की जाती हैं , उनमे समयानुसार परिवर्तन होते रहते हैं l किन्तु यदि उनसे किसी समय के प्रतिकूल रूढ़ि को त्यागने को कहा जाये तो वे कभी उसके लिए तैयार नहीं होते और तुरंत प्रथा व परंपरा की दुहाई देने लगते हैं l उनकी समझ में यह बात आती ही नहीं कि प्रथाएं और परम्पराएँ व्यक्तियों और समाज की सुविधा के लिए हैं न कि उनको बन्धनों में डालने के लिए l जब परिस्थितियों के बदल जाने से कोई प्रथा हानिकारक सिद्ध होने लगती है तो उसको त्यागना या बदल देना ही समझदारों का कर्तव्य है l यद्दपि रूढ़ियाँ न्यूनाधिक मात्रा सर्वत्र हैं किन्तु भारत में विशेषत: हिन्दू समाज में उनका जैसा कुप्रभाव देखने में आता है वैसा अन्यत्र नहीं है l इन लोगों ने सती-प्रथा जैसी क्रूरता और निर्दयतापूर्ण रूढ़ि को भी राजी - खुशी से नहीं छोड़ा l उनके ऊपर जब राज्य का अत्याधिक दबाव पड़ा और उसके लिए दंड दिए जाने का कानून बना दिया गया तब कहीं जाकर उस कुप्रथा छोड़ सके l आज ऐसे विद्वान् और कर्मवीर व्यक्तियों की आवश्यकता है जो जनता को समझा सकने के साथ स्वयं उन सुधारों पर अमल करे l
No comments:
Post a Comment