वैदिककालीन सच्चे अध्यात्म और प्राचीन सभ्यता का गलत अहंकार
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने वाड्मय ' मरकर भी अमर हो गए जो ' में पृष्ठ 2.123 पर लिखा है की हमारी प्राचीन सभ्यता श्रेष्ठ थी लेकिन मध्य युग में हमारे यहाँ जो विचारधारा फैली वह यही थी कि हम बड़े धर्मात्मा , ज्ञानी , विद्वान् और सभ्य हैं तथा अन्य देशों में प्राय: मलेच्छ , बर्बर , दैत्य आदि निम्न कोटि के मनुष्य भरे पड़े हैं l तभी से हमारे ऊपर विदेशी आक्रमण होने लगे l यूनानी , शक , हूण, पठान आदि जातियों ने भारत को लूटा , आधीन भी बनाया किन्तु हम सदा यही कहते रहे कि -- " वे सब असभ्य , राक्षस , तामसी , पापी हैं और ज्ञानी , ध्यानी , तपस्वी , त्यागी , पुण्यात्मा तो हम ही हैं l " सुप्रसिद्ध पर्यटक अलबरूनी ने भारतवर्ष की तत्कालीन स्थिति का अध्ययन कर लिखा है ---- " हिन्दू लोग समझते हैं कि उनके जैसा दूसरा देश नहीं , उनके राजाओं जैसा दूसरा राजा नहीं , उनके धर्म जैसा दूसरा धर्म नहीं , उनके शास्त्रों जैसा दूसरा शास्त्र नहीं l यदि तुम खुरासान और ईरान के शास्त्रों , विद्वानों के सम्बन्ध में उनसे बात करोगे तो वे तुमको मूर्ख व मिथ्यावादी समझेंगे l वे यदि दूसरों से मिले - जुलें , प्रवास करें तो उनकी यह प्रवृति नहीं रहेगी , क्योंकि उनके पूर्वज संकुचित नहीं थे l "
आचार्य श्री ने आगे लिखा है ----' इतना ही नहीं जब मुसलमानों और उसके बाद अंग्रेजों ने इस देश पर अधिकार जमा लिया हमको अपने आधीन बनाकर हर तरह से प्रताड़ित , अपमानित और लांछित किया , तब भी हमारी मोह निद्रा भंग नहीं हुई l हम अपने को धर्मात्मा और उनको मलेच्छ कहते रहे l पुराने युग की बात छोड़ दीजिए वर्तमान युग में हमने अपनी आँखों से देखा है कि राजाओं और पंडितों से लेकर सामान्य जन तक अंग्रेजों को ' हुजुर - हुजूर ' कहते हुए अपना गला सुखाते रहते थे और उनकी थोड़ी सी कृपा पाकर ही अपने को धन्य समझते थे लेकिन अपने सभा - समाजों में यही कहते थे कि हम ऋषियों और चक्रवर्ती नरेशों के वंशज हैं , वे म्लेच्छ हैं l लेकिन अंत में उन्ही के क़दमों में बैठकर आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने वालों ने देश का उद्धार किया और वेद तथा शास्त्रों के अभिमानी ' पण्डित ' उस समय भी कापुरुष की तरह दूर रहकर व्यर्थ में ही गाल बजाते रहे l '
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने वाड्मय ' मरकर भी अमर हो गए जो ' में पृष्ठ 2.123 पर लिखा है की हमारी प्राचीन सभ्यता श्रेष्ठ थी लेकिन मध्य युग में हमारे यहाँ जो विचारधारा फैली वह यही थी कि हम बड़े धर्मात्मा , ज्ञानी , विद्वान् और सभ्य हैं तथा अन्य देशों में प्राय: मलेच्छ , बर्बर , दैत्य आदि निम्न कोटि के मनुष्य भरे पड़े हैं l तभी से हमारे ऊपर विदेशी आक्रमण होने लगे l यूनानी , शक , हूण, पठान आदि जातियों ने भारत को लूटा , आधीन भी बनाया किन्तु हम सदा यही कहते रहे कि -- " वे सब असभ्य , राक्षस , तामसी , पापी हैं और ज्ञानी , ध्यानी , तपस्वी , त्यागी , पुण्यात्मा तो हम ही हैं l " सुप्रसिद्ध पर्यटक अलबरूनी ने भारतवर्ष की तत्कालीन स्थिति का अध्ययन कर लिखा है ---- " हिन्दू लोग समझते हैं कि उनके जैसा दूसरा देश नहीं , उनके राजाओं जैसा दूसरा राजा नहीं , उनके धर्म जैसा दूसरा धर्म नहीं , उनके शास्त्रों जैसा दूसरा शास्त्र नहीं l यदि तुम खुरासान और ईरान के शास्त्रों , विद्वानों के सम्बन्ध में उनसे बात करोगे तो वे तुमको मूर्ख व मिथ्यावादी समझेंगे l वे यदि दूसरों से मिले - जुलें , प्रवास करें तो उनकी यह प्रवृति नहीं रहेगी , क्योंकि उनके पूर्वज संकुचित नहीं थे l "
आचार्य श्री ने आगे लिखा है ----' इतना ही नहीं जब मुसलमानों और उसके बाद अंग्रेजों ने इस देश पर अधिकार जमा लिया हमको अपने आधीन बनाकर हर तरह से प्रताड़ित , अपमानित और लांछित किया , तब भी हमारी मोह निद्रा भंग नहीं हुई l हम अपने को धर्मात्मा और उनको मलेच्छ कहते रहे l पुराने युग की बात छोड़ दीजिए वर्तमान युग में हमने अपनी आँखों से देखा है कि राजाओं और पंडितों से लेकर सामान्य जन तक अंग्रेजों को ' हुजुर - हुजूर ' कहते हुए अपना गला सुखाते रहते थे और उनकी थोड़ी सी कृपा पाकर ही अपने को धन्य समझते थे लेकिन अपने सभा - समाजों में यही कहते थे कि हम ऋषियों और चक्रवर्ती नरेशों के वंशज हैं , वे म्लेच्छ हैं l लेकिन अंत में उन्ही के क़दमों में बैठकर आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने वालों ने देश का उद्धार किया और वेद तथा शास्त्रों के अभिमानी ' पण्डित ' उस समय भी कापुरुष की तरह दूर रहकर व्यर्थ में ही गाल बजाते रहे l '
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