विभूति अर्थात विशेष गुण - क्षमता से संपन्न व्यक्तित्व l विभूतियाँ दुधारी तलवार की तरह होती हैं l जहाँ ये सृजन में अपना चमत्कार प्रस्तुत करती हैं , वहीँ दिशा भटकने पर भयंकर विनाश और विध्वंस के दृश्य भी प्रस्तुत करती हैं l
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- '' वर्तमान विध्वंसकारी प्रवाह में भी विभूतियों के भटकाव को स्पष्टत: देखा जा सकता है l धर्म - तंत्र की विभूतियाँ आज धर्मान्धता , विद्वेष एवं असहिष्णुता का विष घोलने लगी हैं l साहित्य के नाम पर किस तरह उथला , भड़काऊ एवं कुत्सित सृजन चल रहा है उसे सब जानते हैं l मनोरंजन के नाम पर धन , स्वास्थ्य अवं चरित्र को भ्रष्ट करने वाली उत्तेजक सामग्री को परोसा जा रहा है l सत्ताधारी राजनेता एवं अफसरशाही भ्रष्टाचार एवं अपराध में लिप्त हैं l लक्ष्मी के पुजारी दिन - रात अपनी तिजोरियां भरने के चक्कर में यह भूल गए कि कितने लोग धन के अभाव से परेशान हैं l वर्तमान संकट विभूतियों के अपने कर्तव्य से विमुखता का संकट है l यदि विभूतियाँ स्वार्थ से थोड़ा हटकर सृजन की ओर मुड़ जाएँ , तो युग का कायाकल्प होने में देर न लगे l "
आचार्य श्री आगे लिखते हैं --- ' विभूतियाँ यथार्थ में ईश्वरीय अनुदान है l यह एक विडम्बना ही है कि जिन्हे विभूतियों के रूप में सौभाग्य प्राप्त होता है , उनके साथ प्राय; एक दुर्भाग्य भी जुड़ा होता है l वे इस ईश्वरीय अनुग्रह का कारण नहीं समझ पाते और उससे जुड़े उत्तरदायित्व का ध्यान नहीं रखते l ईश्वरीय सृष्टि में हर कार्य व्यवस्थापूर्वक ही होता है l निर्वाह की सुविधा हर प्राणी को उपलब्ध होती है l जिसे इससे अधिक उपलब्ध हो, उसे समाज की अमानत समझकर , समाज के हित में , लोक - मंगल के लिए उपयोग किया जाना चाहिए l '
आचार्य जी का कहना है --- " आवश्यकता से अधिक उपयोग वासना , तृष्णा और अहंता के बहकावे में किया तो जा सकता है , किन्तु ऐसे में ईश्वर प्रदत्त अमानत का दुरूपयोग होते ही प्रतिक्रिया विभिन्न रूपों में सामने आती है l ऐसा करने वालों को आत्मप्रताड़ना , लोक - भर्त्सना से लेकर ईश्वरीय दंडविधान का कोपभाजन बनना पड़ता है l
अत: हर विभूतिवान को अपनी विभूति का सदुपयोग करने के लिए सजग रहना चाहिए l इसी मार्ग पर वह जीवन में अभीष्ट यश और संतोष प्राप्त कर सकता है l "
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- '' वर्तमान विध्वंसकारी प्रवाह में भी विभूतियों के भटकाव को स्पष्टत: देखा जा सकता है l धर्म - तंत्र की विभूतियाँ आज धर्मान्धता , विद्वेष एवं असहिष्णुता का विष घोलने लगी हैं l साहित्य के नाम पर किस तरह उथला , भड़काऊ एवं कुत्सित सृजन चल रहा है उसे सब जानते हैं l मनोरंजन के नाम पर धन , स्वास्थ्य अवं चरित्र को भ्रष्ट करने वाली उत्तेजक सामग्री को परोसा जा रहा है l सत्ताधारी राजनेता एवं अफसरशाही भ्रष्टाचार एवं अपराध में लिप्त हैं l लक्ष्मी के पुजारी दिन - रात अपनी तिजोरियां भरने के चक्कर में यह भूल गए कि कितने लोग धन के अभाव से परेशान हैं l वर्तमान संकट विभूतियों के अपने कर्तव्य से विमुखता का संकट है l यदि विभूतियाँ स्वार्थ से थोड़ा हटकर सृजन की ओर मुड़ जाएँ , तो युग का कायाकल्प होने में देर न लगे l "
आचार्य श्री आगे लिखते हैं --- ' विभूतियाँ यथार्थ में ईश्वरीय अनुदान है l यह एक विडम्बना ही है कि जिन्हे विभूतियों के रूप में सौभाग्य प्राप्त होता है , उनके साथ प्राय; एक दुर्भाग्य भी जुड़ा होता है l वे इस ईश्वरीय अनुग्रह का कारण नहीं समझ पाते और उससे जुड़े उत्तरदायित्व का ध्यान नहीं रखते l ईश्वरीय सृष्टि में हर कार्य व्यवस्थापूर्वक ही होता है l निर्वाह की सुविधा हर प्राणी को उपलब्ध होती है l जिसे इससे अधिक उपलब्ध हो, उसे समाज की अमानत समझकर , समाज के हित में , लोक - मंगल के लिए उपयोग किया जाना चाहिए l '
आचार्य जी का कहना है --- " आवश्यकता से अधिक उपयोग वासना , तृष्णा और अहंता के बहकावे में किया तो जा सकता है , किन्तु ऐसे में ईश्वर प्रदत्त अमानत का दुरूपयोग होते ही प्रतिक्रिया विभिन्न रूपों में सामने आती है l ऐसा करने वालों को आत्मप्रताड़ना , लोक - भर्त्सना से लेकर ईश्वरीय दंडविधान का कोपभाजन बनना पड़ता है l
अत: हर विभूतिवान को अपनी विभूति का सदुपयोग करने के लिए सजग रहना चाहिए l इसी मार्ग पर वह जीवन में अभीष्ट यश और संतोष प्राप्त कर सकता है l "
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