पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का कहना है ---- ' आज समाज में छाई अनास्था स्वयं को नास्तिक कहने वालों की वजह से नहीं है अपितु उन आस्तिकों की वजह से है जो बाहर वैसा ही आडम्बर रचते हैं , पर उनके जीवन में वह कहीं भी लेशमात्र भी नजर नहीं आता l आस्तिकता और नैतिकता दोनों एक दूसरे से घनिष्टता पूर्वक सम्बंधित हैं l उपासना गृहों की संख्या व उनमे जाने वालों की तादाद बढ़ते चले जाने के बावजूद नास्तिकता तेजी से बढ़ रही है l कर्मकाण्ड के आडम्बरों में उलझा व्यक्ति निजी जीवन में अनैतिक आचरण करता देखा जाता है l "
आचार्य श्री का कहना है ---- ' व्यक्ति बहिरंग जीवन में धार्मिक आचरण करे , न करे किन्तु उसके मानस का परिष्कार तो होना ही चाहिए l उसे यह समझाना जरुरी है कि बिना भावनात्मक कायाकल्प के सारे बाह्योपचार निरर्थक हैं l "
शिवाजी समर्थ गुरु रामदास के प्रिय शिष्य थे l जब शिवाजी ने उनसे गुरु दक्षिणा का आदेश देने के लिए निवेदन किया तो समर्थ गुरु रामदास ने कहा --- ' शिवाजी ! तू बल की उपासना कर , बुद्धि को पूज , संकल्पवान बन और चरित्र की दृढ़ता को अपने जीवन में उतार , यही तेरी ईश्वर भक्ति है l भारतवर्ष में बढ़ रहे पाप , हिंसा , अनैतिकता और अनाचार के कुचक्र से लोहा लेने और भगवान की सृष्टि को सुन्दर बनाने के लिए इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है l "
उन्होंने ध्वजा को शिवाजी को थमाते हुए कहा था --- शिवा ! इस ध्वज को झुकने न देना l "
और छत्रपति शिवाजी ने उनकी हर कदम पर उनकी आज्ञा का पालन किया l
जब उनके सहयोगी सोनदेव ने कल्याण के किले पर अधिकार कर लिया और किलेदार मुल्ला अहमद की अपूर्व सुन्दर पुत्रवधु गौहर बानू को शिवाजी के सामने दरबार में प्रस्तुत किया l तो शिवाजी ने क्रोध से गर्जना करते हुए कहा --- " अपनी महान संस्कृति के पवित्र सूत्रों को कैसे भूल गए तुम ? तुम अपराधी हो नायक l " फिर वे सिंहासन से उठकर गौहर बानू के सामने पहुंचे और घुटने मोड़कर बैठते हुए हाथ जोड़कर कहा ---- " माँ ! अपने सरदार द्वारा किये गए अपराध के लिए मैं आपके सामने क्षमा प्रार्थी हूँ l देवि ! हमारी देव संस्कृति की पुण्य शपथ नारी माँ है l उसके अक्षुण्ण सम्मान को विस्मृत करना इस महान संस्कृति की संतति के लिए आत्मघात है मैं आपके सम्मुख बार - बार क्षमा प्रार्थी हूँ l " फिर उन्होंने पेशवा से कहा --- इन्हे सम्मान और सुरक्षा के साथ बीजापुर भेजने का प्रबंध किया जाये l
आज्ञा देकर भी वे संतुष्ट नहीं हुए और स्वयं बाहर खड़ी शानदार बग्घी तक उसे छोड़ने आये l बग्घी के साथ पांच सौ मराठों की टुकड़ी सुरक्षा के लिए जा रही थी l शिवजी ने सभी नागरिकों , सभासदों से कहा -- " देख रहे हो किले के कंगूरे पर फहरा रही ध्वजा को l श्री श्री समर्थ ने कहा था इस ध्वज को झुकने न देना l सभी ने आँख उठाकर देखा , ध्वज ऐसे फहरा रहा था जैसे ऊपर जाकर सहस्रदल कमल खिल गया हो l
आचार्य श्री का कहना है ---- ' व्यक्ति बहिरंग जीवन में धार्मिक आचरण करे , न करे किन्तु उसके मानस का परिष्कार तो होना ही चाहिए l उसे यह समझाना जरुरी है कि बिना भावनात्मक कायाकल्प के सारे बाह्योपचार निरर्थक हैं l "
शिवाजी समर्थ गुरु रामदास के प्रिय शिष्य थे l जब शिवाजी ने उनसे गुरु दक्षिणा का आदेश देने के लिए निवेदन किया तो समर्थ गुरु रामदास ने कहा --- ' शिवाजी ! तू बल की उपासना कर , बुद्धि को पूज , संकल्पवान बन और चरित्र की दृढ़ता को अपने जीवन में उतार , यही तेरी ईश्वर भक्ति है l भारतवर्ष में बढ़ रहे पाप , हिंसा , अनैतिकता और अनाचार के कुचक्र से लोहा लेने और भगवान की सृष्टि को सुन्दर बनाने के लिए इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है l "
उन्होंने ध्वजा को शिवाजी को थमाते हुए कहा था --- शिवा ! इस ध्वज को झुकने न देना l "
और छत्रपति शिवाजी ने उनकी हर कदम पर उनकी आज्ञा का पालन किया l
जब उनके सहयोगी सोनदेव ने कल्याण के किले पर अधिकार कर लिया और किलेदार मुल्ला अहमद की अपूर्व सुन्दर पुत्रवधु गौहर बानू को शिवाजी के सामने दरबार में प्रस्तुत किया l तो शिवाजी ने क्रोध से गर्जना करते हुए कहा --- " अपनी महान संस्कृति के पवित्र सूत्रों को कैसे भूल गए तुम ? तुम अपराधी हो नायक l " फिर वे सिंहासन से उठकर गौहर बानू के सामने पहुंचे और घुटने मोड़कर बैठते हुए हाथ जोड़कर कहा ---- " माँ ! अपने सरदार द्वारा किये गए अपराध के लिए मैं आपके सामने क्षमा प्रार्थी हूँ l देवि ! हमारी देव संस्कृति की पुण्य शपथ नारी माँ है l उसके अक्षुण्ण सम्मान को विस्मृत करना इस महान संस्कृति की संतति के लिए आत्मघात है मैं आपके सम्मुख बार - बार क्षमा प्रार्थी हूँ l " फिर उन्होंने पेशवा से कहा --- इन्हे सम्मान और सुरक्षा के साथ बीजापुर भेजने का प्रबंध किया जाये l
आज्ञा देकर भी वे संतुष्ट नहीं हुए और स्वयं बाहर खड़ी शानदार बग्घी तक उसे छोड़ने आये l बग्घी के साथ पांच सौ मराठों की टुकड़ी सुरक्षा के लिए जा रही थी l शिवजी ने सभी नागरिकों , सभासदों से कहा -- " देख रहे हो किले के कंगूरे पर फहरा रही ध्वजा को l श्री श्री समर्थ ने कहा था इस ध्वज को झुकने न देना l सभी ने आँख उठाकर देखा , ध्वज ऐसे फहरा रहा था जैसे ऊपर जाकर सहस्रदल कमल खिल गया हो l
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