एक पुरानी कथा है --- डाकू खड़ग सिंह और भोले संत बाबा भारती की l साधु स्वभाव के बाबा भारती के पास एक अच्छी नसल का बेशकीमती घोड़ा था l जिसे उनसे छीनने के लिए डाकू खड़ग सिंह ने हर जतन किए , छल - बल की युक्ति और कुटिलता , सभी का सहारा लिया , परन्तु सचेत - सावधान बाबा भारती ने उसकी हर चाल को नकामयाब कर दिया l फिर अंत में उसने बाबा की भावनाओं को छलने के लिए व्यूह रचा l एक दिन शाम को जब बाबा भारती अपने घोड़े की पीठ पर बैठे सैर पर जा रहे थे , उन्होंने एक लंगड़े की दर्द भरी पुकार सुनी ---- " अरे ! मुझसे चला नहीं जाता , मुझ लंगड़े की मदद करो बाबा ! " बाबा भारती इस दर्द भरी पुकार पर अपने को रोक न सके और उन्होंने घोड़े पर खड़ग सिंह को बैठा दिया l कथा कहती है कि डाकू खड़ग सिंह अपनी सफलता पर हँसा और बोला --- ' तुमने आसानी से मुझे यह घोड़ा नहीं दिया , मैंने तुम्हारी भावनाओं को छल कर इस घोड़े पर अपना कब्ज़ा कर लिया l "
तब बाबा भारती ने दरद भरे स्वर में कहा ---- " अपनी यह चालबाजी किसी को मत कहना खड़ग सिंह अन्यथा कोई किसी लंगड़े की मदद नहीं करेगा l " लेकिन लगता है डाकू खड़ग सिंह ने अपनी सफलता की कथा सबको विशेष रूप से कॉरपोरेट जगत को सुना दी l उस ज़माने में एक से एक अमीर थे , राजे - महाराजा थे , डाकू खड़ग सिंह ने उनका किसी का घोड़ा नहीं छीना l सीधे - सरल , भावुक बाबा भारती के साथ ही छल किया l यही स्थिति आज है सीधी - सरल , रोजी - रोटी की चिंता में डूबी हुई जनता की भावनाओं को छलकर , कभी भय दिखाकर , कभी सपने दिखाकर कुछ मुट्ठी भर लोग अमीर व शक्तिशाली हो जाते हैं -----
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