स्वामी विवेकानंद के जीवन की घटना है --- बात 1899 की है , जब स्वामी विवेकानंद राजस्थान में माउंट आबू में नक्की झील के किनारे एक गुफा में ठहरे थे l एक मुसलमान वकील के आग्रह पर वे उसके घर पर रहने को चले गए l कुछ समय बाद उस वकील ने महाराजा खेतड़ी के व्यक्तिगत सचिव मुंशी जगमोहन लाल को स्वामी जी से मिलने के लिए आमंत्रित किया l जब मुंशी जी ने स्वामी जी से उनके एक मुसलमान के घर ठहरने के औचित्य पर प्रश्न किया , क्योंकि वहां रहने पर मुसलमान द्वारा उनके भोजन का स्पर्श होना स्वाभाविक था , तब स्वामी जी ने कहा ---- " महाशय ! आप क्या कहते हैं ? मैं एक अछूत के साथ भी भोजन कर सकता हूँ l मैं सर्वत्र ब्रह्म के दर्शन करता हूँ , क्षुद्रतम जीव में भी मैं ब्रह्म को देखता हूँ और फिर सभी उपासनाओं का सार भी तो यही है कि हम पावन , पुनीत , पवित्र , निर्मल , निश्छल , निष्कपट और निर्दोष बनें l " वास्तव में एक ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति की दृष्टि में जाति , पंथ , मजहब की सारी दीवारें ढह जाती हैं हैं और सर्वत्र उसे ब्रह्म का ही अस्तित्व दीख पड़ता है l जब स्वामी विवेकानंद , नरेंद्र रूप में पहली बार दक्षिणेश्वर काली मंदिर में श्री रामकृष्ण परमहंस से मिलने आये थे , तब उनके बारे में परमहंस जी ने कहा था ---- " नरेंद्र ने पश्चिमी द्वार से कमरे में प्रवेश किया l न तो वेशभूषा या शरीर की ओर उसका ध्यान था और न ही संसार के प्रति आकर्षण ---- कलकत्ते के भौतिकवादी वातावरण में इस प्रकार आध्यात्मिक चेतना संपन्न व्यक्ति के आगमन से मैं चकित रह गया l " स्वामीजी की कविता की पंक्ति है ---- ' बहु रूपों में खड़े तुम्हारे आगे , और कहाँ हैं ईश ?-----
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