महाभारत में राजसूय यज्ञ की कथा आती है , इसमें नेवले का प्रसंग है ---पांडवों द्वारा किया गया राजसूय यज्ञ श्रीकृष्ण की उपस्थिति में संपन्न हुआ l अब पांडवों में बहुत अहंकार आ गया कि हमने इतना दान किया , इतने यज्ञ किये , इतना भोजन कराया ---- भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि पांडवों में अहंकार पल रहा है , यह यज्ञ यज्ञीय भाव से नहीं हुआ l श्रीकृष्ण सभी को यज्ञ स्थल के पास ले गए , वहां देखा एक नेवला लोट रहा है जिसका आधा शरीर सोने का था और आधा सामान्य था l भगवान श्रीकृष्ण ने जानना चाहा कि उसका यह शरीर कैसे हुआ ? नेवले ने बताया ---- ' मैंने पहले भी एक महायज्ञ भाग लिया था , उसमे मेरा आधा शरीर सोने का हो गया l यहाँ भी मैं इसी आशा से आया हूँ कि बचा हुआ शरीर भी सोने का हो जाये , लेकिन यहाँ ऐसा नहीं हुआ l "
पांडवों की उपस्थिति में श्रीकृष्ण ने नेवले से पूछा कि बताओ पिछले यज्ञ कैसा था ? नेवले ने बताया ---- " एक ब्राह्मण परिवार अनुष्ठान कर रहा था , भयंकर अकाल की स्थिति थी l ऐसे में उन्होंने नौ दिन पश्चात् बचा हुआ भोजन लेने का विचार किया था l साधन - सुविधा कुछ नहीं थी अत: नवें दिन भावनात्मक पूर्णाहुति कर वह परिवार ज्यों ही भोजन करने बैठा कि एक चांडाल आ गया , उसने कहा कि हमें भूख लगी है l ब्राह्मण ने अपना भोजन उसे दे दिया l भोजन करने के बाद उसने कहा कि पेट नहीं भरा , तब ब्राह्मण की पत्नी ने भी अपना भोजन उसे दे दिया l लेकिन तब भी उसका पेट नहीं भरा l तब अंतिम आस के रूप में दोनों पुत्रों के पास जो भोजन था , वह भी उन्होंने चांडाल को दे दिया l चांडाल ने भोजन किया और तृप्त हो गया , उसने पूछा कि अब आप लोग क्या खाएंगे ? ब्राह्मण ने कहा -- ईश्वर की जैसी इच्छा , हम पानी पीकर पारायण कर लेंगे l "
नेवले ने पांडवों और श्रीकृष्ण को बताया --- " चांडाल ने भोजन कर के तृप्त होकर जिस स्थान पर कुल्ला किया , वहां कुछ भोजन के कण भी गिर गए , मैंने उसी में लोट लगाईं थी तो मैं आधा सोने का हो गया l फिर मैंने देखा कि ब्राह्मण सपरिवार चांडाल रूपी अतिथि को प्रणाम करने झुके तो वहां स्वयं नारायण हरि प्रकट हो गए l भगवान स्वयं चांडाल का रूप धरकर ब्राह्मण परिवार की यज्ञीय वृत्ति को परखने आये थे l " नेवले ने कहा -- में युगों युगों से प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि ऐसा यज्ञ पुन: हो , यहाँ भी मैं इसी आशा से आया था लेकिन मेरा दुर्भाग्य है कि अधूरी आशा और आधा सोने का शरीर लिए जा रहा हूँ l '
भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों से कहा --- ' प्रतिकूलताओं में जिसका यज्ञीय भाव जिन्दा हो , जो देने की आकांक्षा रखता हो , जिसकी भावनाएं पुष्ट व पवित्र हों वही देवता है और इस भाव से किया गया यज्ञ ही सार्थक है l भगवान के ऐसा कहते ही घनघोर घटायें बरसीं और अकाल दूर हुआ l यह सब सुनकर पांडवों का अहंकार दूर हुआ l भगवान ने कहा कि पहले यज्ञ के मर्म को समझो , यज्ञमय जीवन का मर्म समझो , तभी हवं - पूजन , यज्ञ सार्थक है l '
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