एक रोगी राजवैद्य शार्गंधर के समक्ष अपनी कष्टगाथा सुना रहा था l अपच , बेचैनी , अनिद्रा , दुर्बलता , खांसी , जुकाम जैसे अनेकों कष्ट व उनके उपचार में ढेरों राशि नष्ट कर कोई लाभ न मिलने के कारण ही वह राजवैद्य शार्गंधर के पास आया था l वैद्यराज ने उसे संयम युक्त जीवन जीने व आहार - विहार के नियमों का पालन करने को कहा l रोगी बोला ---- ' यह सब तो मैं कर चुका हूँ l आप तो मुझे कोई औषधि दीजिए , ताकि मैं कमजोरी पर नियंत्रण पा सकूँ l पौष्टिक आहार आदि भी बता दें , आप मुझे पहले जैसा समर्थ बना दें l ' वैद्यराज बोले --- " वत्स ! तुमने संयम अपनाया होता तो मेरे पास आने की स्थिति ही नहीं आती l तुमने जीवनरस ही नहीं , जीवन की सामर्थ्य और धन - संपदा भी इसी कारण खोई है l बाह्य उपचारों से और पौष्टिक आहार आदि से ही स्वस्थ बना जा सका होता तो विलासी और समर्थ कोई भी मधुमेह , अपच आदि का रोगी नहीं होता l मूल कारण तुम्हारे अंदर है , बाहर नहीं l पहले संयमित जीवन जियो , अमृत का संचय करो और फिर देखो वह शरीर निर्माण में किस प्रकार जुट जायेगा l " रोगी ने सही दृष्टि पाई और जीवन को नए सांचे में ढाला , अपने अंतरंग और बहिरंग की अपव्यय वृत्तियों पर रोकथाम की और कुछ ही माह में स्वस्थ - समर्थ हो गया l
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