एक बार ईश्वरचंद्र विद्दासागर अपने एक जमींदार मित्र से भेंट करने कोलकाता जा रहे थे l रास्ते में एक दुकानदार जो उनका पूर्व सहपाठी भी रह चूका था , मिला और अपनी दुकान पर ले गया l बैठने को एक बोरा दिया l वे भी उस पर बैठकर बातें करने लगे l इसी बीच वही जमींदार मित्र कहीं से लौटता हुआ बग्घी पर निकला l उसने उन्हें जमीन पर बैठे देखा और कुछ झिझक के साथ बोला ---- " तुम जहाँ - तहाँ बैठ जाते हो --- क्या तुम्हे अपनी प्रतिष्ठा का कोई ध्यान नहीं l " सुनकर विद्दासागर बोले --- " यदि इससे तुम अपमानित महसूस कर रहे हो तो तुम अपनी मित्रता समाप्त कर दो , ताकि फिर कोई शिकायत तुम्हे न हो l वह गरीब है , केवल इसलिए मैं अपने दुकानदार मित्र का अपमान नहीं कर सकता l " महामानव हमेशा सरल , सहज और मान - अभिमान से परे होते हैं l
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