काशी नरेश युवराज के विकास से संतुष्ट थे l वे प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में उठ जाते , व्यायाम , घुड़सवारी , अध्ययन , राजदरबार के कार्य आदि सभी कुछ समय से करते l किसी भी दुर्व्यसन में नहीं उलझते थे l किन्तु राजपुरोहित बार - बार आग्रह करते कि उन्हें कुछ वर्षों के लिए किसी संत के सान्निध्य में , आश्रम में रखने की व्यवस्था बनाई जाए l किन्तु काशिराज सोचते थे कि उन्हें इसी क्रम में राजकार्य का अनुभव बढ़ाने का अवसर दिया जाए l तभी एक घटना घटी l राजकुमार नगर भ्रमण के लिए घोड़े पर निकले l जहाँ वे रुकते , स्नेह भाव से नागरिक उन्हें घेर लेते l एक बालक कुतूहलवश घोड़े के पास जाकर पूंछ सहलाने लगा l घोड़े ने लात फटकारी और बालक दूर जा गिरा l उसके पैर की हड्डी टूट गई l राजकुमार ने देखा , हँसकर बोले , असावधानी बरतने वालों का यही हाल होता है , और आगे बढ़ गए l सिद्धांतः बात सही थी पर लोगों को व्यवहार खटक गया l काशिराज को सारा विवरण मिला तो वे भी दुःखी हुए l राजपुरोहित ने कहा --- महाराज ! स्पष्ट हुआ है कि युवराज में संवेदनाओं का अभाव है l मात्र सतर्कता - सक्रियता के बल पर जनश्रद्धा का अर्जन और पोषण न कर सकेंगे l हो सकता है कभी क्रूरकर्मी बन जाएँ l अत: समय रहते युवराज की इस कमी को पूरा कर लिया जाना चाहिए l राजा का समाधान हो गया और उन्होंने राजपुरोहित के मतानुसार व्यवस्था कर दी l
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