सम्राट अकबर के समय की एक अलौकिक घटना है , अखण्ड ज्योति में प्रकाशित हुई थी ---- 1562 में जोधाबाई का विवाह अकबर के साथ हुआ था l जोधाबाई का महल भव्य और आलीशान था , फतेहपुर सीकरी में उसे आज भी देखा जा सकता है l जोधाबाई शाम को भगवान कृष्ण के भजन गाती थीं , घी का दीपक जलाती थीं , उन्हें पूरी धार्मिक स्वतंत्रता थी l एक बार वे यमुना नदी में नहाने गईं थीं , तभी उनकी नजर यमुना में डूबती हुई छोटी सी लड़की पर पड़ी l अपनी परवाह न कर वे नदी में कूद गईं और उस कन्या को बचाकर अपने साथ ले आईं और अपनी कन्या की भांति उसका पालन - पोषण करने लगीं l अब वह कन्या तेरह वर्ष की हो गई l रोज शाम को वह जोधामाता के वस्त्र भंडार में से सुन्दर सी साड़ी निकालती , सोलह श्रृंगार करती और छत पर जाने किसकी प्रतीक्षा करती l माँ के बार - बार पूछने पर मौन रहती l जन्माष्टमी का दिन था , कन्या ने भी जोधामाता के साथ व्रत रखा l माँ ने फिर पूछा --- " श्रृंगार कर के तुम किसकी प्रतीक्षा करती हो ? " बेटी आग्रह को टाल न सकी , बोली ---- " माँ ! शाम को मेरे पति गाय चराकर कन्हैया के साथ लौटा करते हैं l अब आप सोचो , उन सबके सामने मलिन वेश में रहना ठीक है क्या ? ' जोधाबाई बोलीं ---- ' क्या आज मुझे भी उन सबका दर्शन करा दोगी ? ' आज जोधाबाई भी कन्या के साथ छत पर चलीं गईं l वे मुरली की क्षीण ध्वनि ही सुन पाईं और मूर्च्छित हो गईं l फिर उन्होंने ऐसा आग्रह नहीं किया l अनेक दिन बीत गए l जोधाबाई को उदास - हताश देखकर कन्या ने पूछा ---- " क्या बात है माता ! आप इतनी उदास क्यों हो ? " जोधाबाई बोलीं ---- " अब मैं बूढ़ी हो गई हूँ पुत्री l तेरे धर्मपिता अब मुझसे उतना प्यार नहीं करते l क्या तुम मेरा श्रृंगार करोगी ? " उस दिन कन्या ने अपने हाथों से माँ का श्रृंगार किया l क्या जादू था कि जोधाबाई अपने यौवन को पा गईं l अकबर भी उनके सौंदर्य से मुग्ध हो गए और उसका कारण पूछा l जोधाबाई ने कहा --- " मेरी पुत्री ने मेरा श्रृंगार किया है l " यह सुनते ही अकबर का मन विषाक्त वासना से भर गया और उनके मन में कुविचार उठा l कुविचार के आते ही अकबर के शरीर में भयंकर जलन उठी जो किसी भी औषधि से शांत नहीं हो रही थी l अंत में उन्होंने बीरबल से उपाय पूछा l बीरबल ने कहा ---- " महाराज ! एक पवित्र कन्या के प्रति उठे कुविचार के कारण यह जलन उठ रही है l आप सूरदास को बुलाएँ l वही इसका उपचार कर सकते हैं l l " अकबर की दशा से द्रवित होकर सूरदास जी महल में आये l महल में उनके पांव धरते ही अकबर की जलन शांत होने लगी l उन्होंने सूरदास जी को बहुत सम्मान के साथ आसन दिया , उनके चरणस्पर्श करते ही अकबर की जलन पूरी तरह शांत हो गई थी l ठीक उसी समय वह कन्या भी माता जोधाबाई के संग वहां पहुँच गई और सूरदास जी से बोली --- " आप कैसे आ गए महात्मन ! " सूरदास जी बोले --- " जैसे आप आ गईं ! बस , इतने संक्षिप्त संवाद के साथ ही सबके सामने उन कन्या की देह से अद्भुत ज्वाला फूटी , वह वहीँ विलीन हो गई , केवल थोड़ी सी राख बची l जोधाबाई तो शोक में व्याकुल हो गईं l तब सूरदास जी ने कहा ---- " आप शोक न करें l पिछले जन्म में मैं ही उद्धव था l जब मैं कृष्ण का सन्देश देने गोपियों के पास गया था तो एक दिन राधा जी की प्रिय सखी ललिता जी से उलाहने भरे स्वर में कुछ बात हो गई , इसी से हमारा कर्मभोग बन गया l इसी कारण मैं एक अंश से सूरदास हूँ और ललिता जी एक अंश से आपके यहाँ अपना भोग पूरा करने आईं थीं l l " सूरदास जी ने वह राख बटोरकर अपने मस्तक पर लगा ली और महल से बाहर चले गए l
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